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________________ 160 // 1-8-6-2(232) // श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन नहीं है और मैं भी किसी का नहिं हूं" इस प्रकार वह भिक्षु एकत्व भाव से सम्यक्तया आत्मा को जाने। क्योंकि- आत्मा में लाघवता को उत्पन्न करता हुआ वह तप के सम्मुख होता है। अतः वह सम्यक्तया समभाव को जाने। जिससे वह आत्मा का विकास कर सके। IV टीका-अनुवाद : __ जिस साधु को अंत:करण में ऐसा चिंतन हो कि- मैं अकेला हि हुं, इस संसार में पर्यटन-भटकनेवाले मेरे आत्मा के उपकारक परमार्थ से कोइ अन्य नहि है, और मैं भी अन्य के दुःखों को दूर करता नहि हुं, क्योंकि- संसार के सभी जीव अपने अपने कर्मो के फलों को हि भुगततें हैं... इस प्रकार वह साधु एकत्वभावना के द्वारा अपने अंतरात्मा को एकाकी स्वरूप देखे... इस जीव को नरक आदि के दुःखों से बचानेवाला अन्य और कोइ नहि है, किंतु यह जीव स्वयं हि शुभ कर्मो के द्वारा अपने आपको नरकादि से बचाता है... इस प्रकार समजनेवाला वह साधु पीडादायक रोग आदि की स्थिति में अन्य किसी के सहकार की अपेक्षा रखे बिना चिंतन करे कि- यह मेरे कीये हुए कर्मो का फल है अतः मुझे हि समभाव से सहन करना चाहिये इस प्रकार के चिंतन से उन रोगों की पीडाओं को साधु सहन करता है... यहां चौथे उद्देशक में कहे गये लाघवतादि यावत् सम्यक्त्व को अच्छी तरह से प्राप्त करे... तथा दुसरे उद्देशक में उद्गम-उत्पादना एवं एषणा दोष कहे गये है... जैसे कि- हे आयुष्मन् श्रमण ! मैं आपके लिये आहारादि या वस्त्र, पात्र, कम्बल, रजोहरण अथवा प्राणिनः भूतानि जीवान् सत्त्वान् समारभ्य समुद्देशं क्रीतं प्रामित्यं आच्छेद्यं अनिसृष्टं आहृत्य ददामि, इत्यादि सूत्रार्थ... तथा अनंतर उद्देशक में ग्रहणैषणा कही जैसे कि- ऐसा कभी हो कि- कोइ साधु बोले कि- मैं ग्लान हुं इत्यादि तब वह गृहस्थ आहारादि घर से लाकर साधु को दे... इत्यादि... अब जो ग्रासैषणा शेष रही वह अब कहतें हैं... V सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में आत्मा के एकत्व के चिन्तन का स्वरूप बताते हुए कहा गया है किसाधक को यह सोचना-विचारना चाहिए कि- इस संसार में मेरा कोई सहयोगी नहीं है और न में भी किसी को साथ दे सकता हूं। क्योंकि- प्रत्येक आत्मा अपने कृत कर्म के अनुसार सुख-दुख का वेदन करती है। अतः कोई भी उसमें परिवर्तन नहीं कर सकता है। स्वयं आत्मा ही अपने सम्यक पुरुषार्थ के द्वारा उस कर्म-बन्धन को तोडकर मुक्त बन सकता है। इसलिए यह आत्मा अकेला ही सुख-दुख का संवेदन करता है और कर्म बन्ध का कर्ता एवं हर्ता भी . यह अकेला ही है। इस प्रकार अपने एकाकीपन का चिन्तन करने वाला साधक प्रत्येक परिस्थिति में संयम में संलग्न रहता है, वह परीषहों से घबराता नहीं। अतः साधक को सदा एकत्व भावना का चिन्तन करना चाहिए।
SR No.004437
Book TitleAcharang Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages368
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size8 MB
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