SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 188
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1 - 8-6- 2 (232) 159 एवं परिकर्मित मतिवाला वह साधु कर्मो की लघुता होने से एकत्व भावना के अध्यवसायवाला होता है इत्यादि... v सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में अभिग्रह निष्ठ मुनि का वर्णन करते हुए बताया गया हे कि- जिस मुनि ने एक वस्त्र और एक पात्र रखने की प्रतिज्ञा की है, वह मुनि सर्दी लगने पर दूसरा वस्त्र लेने की भावना न करे। प्रस्तुत अध्ययन के चौथे उद्देशक में तीन वस्त्र की और पांचवें उद्देशक में दो वस्त्रों की प्रतिज्ञा करने वाले मुनियों का वर्णन किया गया है और प्रस्तुत उद्देशक में एक वस्त्र रखने वाले मुनि का वर्णन है। उत्तरोत्तर वस्त्र की संख्या में कमी का उल्लेख किया गया है, शेष वर्णन पूर्ववत् ही समझीएगा... यह हम पहले बता चूके हैं कि- आत्म-विकास के लिए समभाव की आवश्यकता है। वस्त्र-पात्र आदि उपकरण शरीर सुरक्षा के लिए आवश्यक है। अत: जब तक साधक शीत आदि के परीषह को समभाव पूर्वक सहन करने में सक्षम नहीं हैं तथा लज्जा को नहीं जीत सकता है, तब तक उसे वस्त्र रखने की आवश्यकता है। इन कारणों के अभाव में अर्थात् पूर्ण सक्षम होने पर वस्त्र की आवश्यकता नहीं रहती है। अतः ऐसी स्थिति में वह मुखवस्त्रिका एवं रजोहरण (जो शरीर रक्षा के लिए नहीं किंतु जीव रक्षा के लिए हैं,) को रखकर शेष वस्त्रों का त्याग करके आत्म चिन्तन में संलग्न रहे। ____साधक को आत्म-चिन्तन कैसे करना चाहिए, इस विषय में सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहते हैं... I .. सूत्र // 2 // // 232 // 1-8-6-2 जस्स णं भिक्खुस्स एवं भवइ-एगे अहमंसि, न मे अत्थि कोइ, न याहमवि कस्स वि, एवं से एगागिणमेव अप्पाणं समभिजाणिज्जा, लाघवियं आगममाणे तवे से अभिसमण्णागए भवइ, जाव समभिजाणीया // 232 // II संस्कृत-छाया : ___ यस्य भिक्षोः एवं भवति-एकः अहं अस्मि, न मम अस्ति कः अपि, न च अहं अपि कस्य अपि, एवं सः एकाकिनं एव आत्मानं समभिजानीयात्, लाघविकं आगमयन् तपः तस्य अभिसमन्वागतं भवति यावत् समभिजानीयात् // 232 // III सूत्रार्थ : जिस भिक्षु का इस प्रकार का अध्यवसाय होता है कि- "मैं अकेला हूं, मेरा कोई
SR No.004437
Book TitleAcharang Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages368
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy