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________________ 212 1 - 8 - 8 - 25 (264) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन सभी को होता है। कोई भी ऐसा व्यक्ति नहीं जन्मा है और न जन्मेगा कि- जो न मरा हो और न कभी मरेगा। मरते सब हैं, परन्तु, मरने-मरने में अन्तर है। एक मृत्यु जन्म-मरण के प्रवाह को बढाती है, तो दूसरी मृत्यु उक्त प्रवाह को समाप्त कर देती है। पहली मृत्यु को आगमिक भाषा में बाल (अज्ञान) मरण और दूसरी को पंडित (सज्ञान) मरण कहते हैं। पंडितमरण जन्म-मरण को समाप्त करने वाला है और संयम साधना का उद्देश्य भी जन्ममरण के प्रवाह को समाप्त करना है। अतः साधक को अपनी संयम साधना को सफल बनाने के लिए पंडितमरण को प्राप्त करना चाहिए। यह हम देख चुके हैं कि- पंडित मरण तीन प्रकार का है- 1. भक्तप्रत्याख्यान, २इंगितमरण और ३-पादोपगमन। पादोपगमन सर्व श्रेष्ठ है और इंगितमरण मध्यम स्थिति का है और भक्तप्रत्याख्यान सामान्य कोटि का है। ये श्रेणियां साधना की कठोरता की अपेक्षा से है किंतु साधना की दृष्टि से तीनों मरण महत्त्वपूर्ण है। यदि साधक राग-द्वेष पर विजय प्राप्त करके समभाव पूर्वक परीषहों को सहन करते हुए समाधि-मरण को प्राप्त करता है, तो वह उपरोक्त प्रत्येक तीनों मरण से निर्वाण पद को प्राप्त कर सकता है। यह उसकी शारीरिक क्षमता पर आधारित है कि- वह तीनों में से किसी भी एक मरण को स्वीकार करे। परन्तु, समभाव से उसका पालन करे; अन्तिम सांस तक अपने पथ में दृढभाव बनाये रखना हि संयम साधना की सफलता है। 'त्तिबेमि' की व्याख्या पूर्ववत् समझें। // इति शस्त्रपरिज्ञायां अष्टमाध्ययने अष्टमः उद्देशकः समाप्तः // // इति अष्टममध्ययनं समाप्तम् // : प्रशस्ति : मालव (मध्य प्रदेश) प्रांतके सिद्धाचल तीर्थ तुल्य शत्रुजयावतार श्री मोहनखेडा तीर्थमंडन श्री ऋषभदेव जिनेश्वर के सांनिध्यमें एवं श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरिजी, श्रीमद् यतीन्द्रसूरिजी, एवं श्री विद्याचंद्रसूरिजी के समाधि मंदिर की शीतल छत्र छायामें शासननायक चौबीसवे तीर्थंकर परमात्मा श्री वर्धमान स्वामीजी की पाट-परंपरामें सौधर्म बृहत् तपागच्छ संस्थापक अभिधान राजेन्द्र कोष निर्माता भट्टारकाचार्य श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी म. के शिष्यरत्न विद्वद्वरेण्य व्याख्यान वाचस्पति अभिधान राजेन्द्रकोषके संपादक श्रीमद् विजय यतीन्द्रसूरीश्वरजी म. के शिष्यरत्न, दिव्यकृपादृष्टिपात्र, मालवरत्न, आगम मर्मज्ञ, श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम प्रकाशन के लिये राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी हिंदी टीका के लेखक मुनिप्रवर
SR No.004437
Book TitleAcharang Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages368
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size8 MB
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