________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1 - 8 - 8 - 25 (264) 211 - II संस्कृत-छाया : सर्वाथैः अमूर्च्छितः आयुः कालस्य पारगः। तितिक्षां परमां ज्ञात्वा विमोहान्यतरं हितम् इति ब्रवीमि // 264 // III सूत्रार्थ : मुनि शब्दादि विषयों में अनासक्त रहे। वह जीवन पर्यन्त उन विषयों से निवृत्त रहे और तितिक्षा को सर्व-श्रेष्ठ जानकर मोह से रहित बने। तीनों अनशनों में यथाशक्ति किसी एक अनशन को हितकारी समझकर स्वीकार करे। ऐसा मैं तुम्हें कहता हूं। IV टीका-अनुवाद : सर्व पदार्थ याने पांच प्रकार के इंद्रियों के विषय... मनोज्ञ शब्द, रूप, गंध, रस एवं स्पर्श स्वरूप कामभोग के पदार्थ और उन पदार्थों की प्राप्ति के कारण ऐसे धन-वैभव में मूच्छा न करे, किंतु पादपोपगमन अनशन स्वीकृत वह साधु यथोक्तविधि से अपने शेष आयुष्य का क्षय करे... प्रवर्धमान शुभ अध्यवसायवाला व साधु अपने आयुष्यकाल को पार करे.. अर्थात् संयम जीवन सफल करे... इस प्रकार यहां कही गइ पादपोपगमन अनशन की विधि की समापना कर के अब उपसंहार करते हुए कहते हैं कि- भक्तपरिज्ञा, इंगितमरण एवं पादपोपगमन अनशन स्वरूप तीन प्रकार के उत्तम मरण में काल, क्षेत्र एवं पुरूषावस्था का आश्रय लेकर परस्पर तुल्य कक्षा मानी गइ है... क्योंकि- यहां समान रूप से तितिक्षा, परीषह एवं उपसगों की संभावना है... ___उपरोक्त तीनों प्रकार से मरण तुल्यफलदायक उत्तम एवं हितकर हि हैं... अतः रागद्वेष-मोहादि से रहित ऐसा साधु, काल एवं क्षेत्रादि को लेकर यथाशक्ति एवं यथा अवसर उपरोक्त तीन में से कोई भी एक मरण का स्वीकार करे... यहां "इति" शब्द अधिकार की समाप्ति का सूचक है, एवं “ब्रवीमि" शब्द पूर्ववत् अर्थात् सुधर्मस्वामीजी कहते हैं, कि- हे जंबू ! श्री वर्धमानस्वामीजी के मुखारविंद से जैसा मैंने सुना है, वैसा हि तुम्हें कहता हुं... नय-विचारादि पूर्व कह चुके हैं... और आगे भी यथावसर कहेंगे... इत्यादि... सूत्रसार : यह तो स्पष्ट है कि- जन्म ग्रहण करने वाला प्राणी मृत्यु को प्राप्त होता हि है मरना