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________________ 210 1 -8-8-25 (264); श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन में श्रद्धा न करे, किंतु प्रत्युत उस देव को हि शिक्षा दे कि- हे देव ! यह दिव्य ऋद्धि समृद्धि भी अशाश्वत है, विनश्वर है, पुण्याधीन है... एवं अनर्थफलवाली है... अथवा तो साधु यह सोचे कि- यह तो देवमाया है... वास्तविक नहि है... यदि ऐसा न हो तब यहां यह पुरूष (देव) आकस्मिक कहां से आया ? और ऐसे इस क्षेत्र, काल एवं भाव में दुर्लभ ऐसी यह विपुल धन-समृद्धि कहां से दे... इत्यादि द्रव्य-क्षेत्र-काल एवं भाव की विचारणा से भी साधु जाने कि- यहां यह देवमाया हि है... ___ अथवा कोइ देवांगना (अप्सरा-देवी) दिव्य रूप बनाकर उस साधु को कामभोग की प्रार्थना करे... तब वह साधु उस देवांगना की दिव्य माया को पहचाने और अपनी संयम की समाधि में हि रहे... अंतरात्मभाव में आत्मसमृद्धि का दर्शन होने से देवांगना की दिव्यमाया को भी विफल करे... अथवा ब्राह्मण (ब्रह्मस्वरूप) ऐसा वह साधु अशेष कर्म का या मायाजाल का विधूनन करके शमरसभाव में लीन होकर समाधि में रहे... V सूत्रसार : प्रस्तुत गाथा में बताया है कि- यदि साधक को कोई देव इतना धन-वैभव दे किवह जीवन पर्यन्त समाप्त न हो, तब भी वह साधु उस वैभव. की ओर ध्यान न दे... तो फिर मनुष्य के वैभव की तो बात ही कहां ? साधु को स्वर्ग के वैभव को पाने की भी अभिलाषा नहीं रखनी चाहिए। क्योंकि- वह वैभव नाशवान है और आरम्भ-समारम्भ एवं वासना को बढ़ाता है, जिससे पापकर्म का बन्ध होता है और परिणाम स्वरूप जन्म-मरण के प्रवाह में बहना पड़ता है। इसलिए साधक को भोगों की इच्छा नहीं रखनी चाहिए। कभी-कभी मिथ्यात्वी देव उसे पथ-भ्रष्ट करने का प्रयत्न करते हैं। विभिन्न प्रलोभनों एवं कष्टों के द्वारा साधुके ध्यान को भंग करने का प्रयास करते हैं। उस समय साधक को समस्त अनुकूल एवं प्रतिकूल परीषहों को सहन करना चाहिए, परन्तु अपने ध्येय से गिरना नहीं चाहिए। देव माया को भली-भांति समझकर साधु अपने मन को सदा आत्म-चिन्तन में हि लगाए रखे... प्रस्तुत अध्ययन का उपसंहार करने हुए सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहते हैं... सूत्र // 25 // // 264 // 1-8-8-25 सव्वठेहिं अमुच्छिए, आउकालस्स पारए। तितिक्खं परमं नच्चा, विमोहन्नयरं हियं तिबेमि // 264 / /
SR No.004437
Book TitleAcharang Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages368
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size8 MB
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