________________ 58 1-6-4-1(201) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन मोक्ष मार्ग का सम्यक् प्रकार से अनुसरण नहिं करतें किंतु अहंकार से जलते हैं। वे कामभोगों में मूर्छित एवं गारवत्रिक में अत्यन्त आसक्त हुए भगवत् कथित समाधिमार्ग का अनुसरण नहीं करते हैं। यदि कभी गुरुजन उन्हें हितशिक्षा दें तब वे उनको भी कठोर वचन बोलते हैं... IV टीका-अनुवाद : . पक्षी अपने बच्चों का संवर्धन जिस प्रकार करता है उसी पद्धति से आचार्यजी स्वहस्त दीक्षित या उपसंपदा से प्राप्त शिष्यों को एवं अध्ययन के लिये आये हुए अन्य साधुओं को दिन में एवं रात्रि में अनुक्रम से ग्रहणशिक्षा एवं आसेवनशिक्षा दें ... जैसे कि- उत्तराध्ययनादि कालिक श्रुत दिन में प्रथम एवं चौथे प्रहर में पढाया जाय, तथा दश-वैकालिक आदि उत्कालिक श्रुत कालवेला को छोडकर संपूर्ण दिन-रात पढाया जाता है... और वह अध्यापन आचारांगादि के क्रम से कराया जाय... जैसे कि- तीन वर्ष का चारित्र पर्याय होने पर आचारांग सूत्र पढाया जाता है... इत्यादि क्रम से पढाये गये शिष्यों को पंचाचारात्मक चारित्र की भी शिक्षा दी जाती है... जैसे कि- युगमात्र याने साढे तीन हाथ प्रमाण भूमी को देखते हुए ईर्यासमिति के उपयोग से चलें, आवागमन करें... तथा कूर्म याने कच्छुए की तरह अंगोपांग को संयमित रखते हुए संयमाचरण करें इत्यादि प्रकार से शिक्षा शिष्यों को दी जाय... यह बात केवलज्ञानी प्रभु श्री महावीर स्वामीजी आदि तीर्थंकरो ने कही है, तथा इसी प्रकार विशिष्ट ज्ञानी गणधर स्थविर आचार्य आदि ने भी यह बात कही है... स्वहस्तदीक्षित एवं उपसंपदा प्राप्त ऐसे दोनो प्रकार के शिष्य प्रेक्षापूर्वक आचारानुष्ठान करनेवाले होने से वे आचार्यादि के पास श्रुतज्ञान को प्राप्त करके बहुश्रुत होतें हैं... किंतु कभीकभी कोइ साधु प्रबल मोहोदय के कारण से गुरुजी के सदुपदेश की अवगणना करता है, और उत्कट मदवाला होकर उपशम भाव का त्याग करके कठोर वचन बोलता है... वह उपशम द्रव्य एवं भाव भेद से दो प्रकार का है... द्रव्य उपशम याने कतकफल के चूर्ण से कलुषित (गंदे) जल को स्वच्छ बनाना... तथा भाव-उपशम याने ज्ञानादि से आत्मा की निर्मलता... जो साधु ज्ञान से उपशम भाव को प्राप्त करे वह ज्ञानोपशम... जैसे किआक्षेपणी आदि कोइ भी धर्मकथा से कोइक साधु उपशम भाव को प्राप्त करता है... तथा दर्शनोपशम याने शुद्ध सम्यग्दर्शन से अन्य जीव को उपशांत करे... यथा- श्रेणिक राजाने मिथ्यात्वी देव को प्रतिबोधित कीया... अथवा सम्मतितर्क आदि दर्शन शास्त्रों से कोइक उपशम भाव को प्राप्त करता है... तथा चारित्रोपशम याने क्रोध आदि का उपशम... तथा विनय, नम्रता आदि गुणो की प्राप्ति... इत्यादि... किंतु कोइक क्षुद्र साधु ज्ञान-समुद्र में अवगाहन करने पर भी क्षुद्रता के कारण से उपशम भाव का त्याग करता है अर्थात् क्रोधादि कषायों की चुंगाल में फंस जाता है... और