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________________ . श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1-6-4 -1(201) 59 अंश मात्र ज्ञान की प्राप्ति में हि गर्व-अभिमान करता हुआ कठोरता को धारण करता है... जैसे कि- कोइ सूत्र के अर्थ निर्णय की विचारणा चलती हो तब अभिमानी क्षुद्र साधु अन्य साधु को कहे कि- इस सूत्र के अर्थ को आप नहि जानते हो... आपने जो अर्थ कहा वह ठीक नहि है... मेरे जैसा कोइक हि सूत्र के अर्थ-निर्णय में समर्थ होता है... सभी नहि... इत्यादि... अन्यत्र भी कहा है कि- कोइक साधु स्वयं हि सूत्र का काल्पनिक अर्थ निर्णय करके गुरुजीसे पुनः पुछे... और कहे कि- वादी और मल्लवादी में मेरे जैसा हि अंतर है... अर्थात् अन्य सभी वादी हैं और मैं मल्लवादी हुं इत्यादि... जब दुसरा साधु कहे कि- हमारे गुरुजी ने तो हमें इस सूत्रका अर्थ इस प्रकार हि कहा है, तब वह अभिमानी साधु कहे कि- वचन में कुंठित एवं बुद्धि रहित वह आचार्यजी क्या जाने ? और तुं भी शुक-पाठ की तरह पढा है, कुछ ऊहा-अपोह तो कीया हि नहि है... इत्यादि एवं अन्य प्रकार से गुरुजी की अवगणना-अपमान करता है... इस प्रकार कुछ थोडे बहोत शब्द श्रतज्ञान को प्राप्त करके गर्विष्ठ वह साधु उपशम भाव का त्याग करता है... जो ज्ञान उपशम भाव का कारण है, उससे हि वह क्रोधादि कषाय भावको पाकर अपनी उद्धताइ प्रगट करता हुआ अन्य साधुओं का अनादर करता है... अर्थात् शास्त्रों के थोडे थोडे अंश को पढकर वह ऐसा गर्व धारण करता है कि- सभी शास्त्रों को मैं हि जानता हुं... मेरे समान अन्य कोइ बुद्धिशाली नहि है... ऐसा वह खुद अपने आप को मानता हैं.. ___ अथवा बहुश्रुत बने हुए साधुओं में से कितनेक (थोडे) साधु हि अशुभकर्मोदय से ग़र्व-अभिमान स्वरूप कठोरता को धारण करतें हैं... सभी नहिं... गर्व-अभिमानी साधु से कभी कोइ साधु कुछ सूत्रार्थ जानना चाहे तब वह गर्व के कारण मौन रहता है... अथवा हुंकारा से या मस्तक हिलाने के द्वारा हि हा या ना इतना हि जवाब देता है... तथा कितनेक साधु ब्रह्मचर्य याने संयम में रहकर आचारांग सूत्र के अर्थानुसार पंचाचार का आचरण करनेवाले भी अशुभकर्मोदय से कभी-कभी गर्व से अंध बनकर तीर्थंकरों के उपदेश स्वरूप आज्ञा की अवगणना करतें हैं... अर्थात् साता-गारव की बहुलता के कारण से शरीर की सुख-सुविधा के लिये बकुश-कुशीलता को धारण करते हैं... अथवा अपवाद मार्ग का आलंबन लेनेवाले उनको जब गुरुजी उत्सर्ग मार्ग की प्रेरणा करते हैं, तब वे साधु कहते हैं कि- तीर्थंकर प्रभु की आज्ञा उत्सर्ग एवं अपवाद स्वरूप है... और अपवाद मार्ग के सूत्र को दिखलाते हुए अपवाद मार्ग को हि तीर्थंकर की आज्ञा मानकर चलतें हैं... जैसे कि- ग्लान साधु के लिये आधाकर्म आदि भी उचित है इत्यादि... यदि प्रभु की ऐसी आज्ञा नहि है, तो रुग्ण ऐसे ग्लानादि साधुओं को उन आधाकर्मादि
SR No.004437
Book TitleAcharang Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages368
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size8 MB
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