________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी-हिन्दी-टीका 卐१-६-४-१(२०१)॥ 57 - D श्रुतस्कंध - 1 अध्ययन - 6 उद्देशक - 4 / म गारवत्रिकविधूननम् // __तृतीय उद्देशक कहा, अब चौथे उद्देशक का प्रारंभ करतें हैं... इसका यहां परस्पर संबंध इस प्रकार है कि- तृतीय उद्देशक में शरीर एवं उपकरण का धूनन याने त्याग कहा था, किंतु उपकरण विधूनन के लिये गारवत्रिक का त्याग अनिवार्य है, अतः इस तीन गारव के धूनन (त्याग) का उपदेश इस चौथे उद्देशक में कहा जाएगा... इस संबंध से आये हुए चौथे उद्देशक का यह प्रथम सूत्र है... और उसका अस्खलितादि गुण सहित हि उच्चारण कर... I सूत्र // 1 // // 201 // 1-6-4-1 एवं से सिस्सा दिया य राओ य अणुपुत्वेण वाइया तेहिं महावीरेहिं पण्णाणमंतेहिं तेसिमंतिए पण्णाणमुवलब्भ हिच्चा उवसमं फारुसियं समाइयंति, वासित्ता बंभचेरंसि आणं तं नो त्ति मण्णमाणा आघायं तु सुच्चा निसम्म, समणुण्णा जीविस्सामो, एगे निक्खमंते असंभवंता विडज्झमाणा कामेहिं गिद्धा अज्झोववण्णा समाहिमाधायमजोसयंता सत्थारमेव फरुसं वयंति // 201 // // संस्कृत-छाया : एवं ते शिष्याः दिवा च रात्रौ च अनुपूर्वेण वाचिताः तै: महावीरैः प्रज्ञावद्भिः, तेषां अन्तिके प्रज्ञानं उपलब्भ्य हित्वा उपशमं परुषतां समाददति / उषित्वा ब्रह्मचर्यं तां आज्ञां "न" इति मन्यमानाः आधाकर्म तु श्रुत्वा निशम्य, समनोज्ञाः जीविष्यामः एके निष्क्रान्ताः असम्भवन्तः दह्यमानाः कामैः गृद्धाः अध्युपपन्नाः समाधि आधाय अजोषयन्तः शास्तारमेव परुषं वदन्ति // 201 // III सूत्रार्थ : हे जम्बू ! कुछ शिष्य तीर्थंकर, गणधर तथा आचायादि प्रज्ञावानों के द्वारा रात-दिन पढ़ाये हुए, उनके समीप श्रुतज्ञान को प्राप्त कर के भी अन्यदा प्रबल मोहोदय से उपशम भाव को छोड़कर कठोर भाव को ग्रहण करते हैं। वे गुरुकुलवास में रहने पर भी तीर्थंकर की आज्ञा को नहि मानते... तथा कुशील सेवन से उत्पन्न होने वाले कष्टों को सुनकर कई साधु इस आशा से दीक्षा लेकर शब्द- शास्त्रादि पढ़ते हैं कि- हम लोक में प्रामाणिक जीवन व्यतीत करेंगे किंतु मोह के प्राबल्य से वे मोहमुग्ध साधु तीन गौरवों के वशीभूत होकर भगवत् कथित