________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका // 1-9-4-7(324) // 311 में स्वर्ग आदि प्राप्त करने की अभिलाषा से तप करना चाहिए और न यश-कीर्ति एवं मानसम्मान की कामना रखकर तप करना चाहिए, परन्तु केवल कर्मों की निर्जरा के लिए तप करना चाहिए। इस तरह भगवान महावीर बिना किसी आकांक्षा के तप करते हुए रात-दिन धर्म एवं शुक्ल ध्यान में संलग्न रहते थे। विभिन्न तप का वर्णन करते हुए सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र से कहते हैं... I सूत्र // 7 // // 324 // 1-9-4-7 छठेण एगया भुंजे, अदुवा अट्ठमेण दसमेणं / दुवालसमेण एगया भुंजे, पेहमाणे समाहिं अपडिन्ने // 324 // II संस्कृत-छाया : षष्ठेन एकदा भुंक्ते अथवा अष्टमेन दशमेन / द्वादशमेनैकदा भुक्तवान् प्रेक्षमाणः समाधि अप्रतिज्ञः // 324 // III सूत्रार्थ : श्रमण भगवान महावीर कभी दो उपवास के बाद आहार करते, कभी तीन, कभी चार और कभी पांच उपवास के बाद आहार करते थे... वे इस तरह कठोर तप-साधना करते हुए भी समाधि का पर्यालोचन करते थे। IV टीका-अनुवाद : छठु तप याने दिन में एक बार भोजन लेने के बाद दो दिन भोजन नहि लेतें... और चौथे दिन भी एक बार भोजन लेते थे... मनुष्य सामान्य व्यवहार से दिन में दो बार भोजन करता है... अतः प्रथम दिन में एक बार भोजन का त्याग... बीच के दो दिन के चार बार के भोजन का त्याग... एवं चौथे दिन भी एक बार के भोजन का त्याग होने से 1 + 4 + 1 = 6 बार के भोजन का त्याग जहां हो उसे छठ्ठ याने षष्ठभक्त तप कहते हैं... . ___ इसी प्रकार एक एक दिन की वृद्धि से अट्ठमभक्त, दशमभक्त, इत्यादि विभिन्न तपश्चर्या परमात्मा समाधि भाव में रहकर सदा करते थे... तथा परमात्मा कभी आर्तध्यान नहि करतें, और निदान याने नियाणा भी कभी भी नहि करतें थें...