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________________ 28 1-6-1-8 (193) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन ले शकुंगा या न तो मरण के समय भवांतर में जाते हुए आपको बचा शकुंगा... हां ! यदि आप पाप से मुक्त होना चाहते हो तो आप भी हमारे साथ प्रव्रज्या ग्रहण कीजीयेगा... और में यदि आपके कहने से यहां घर में रहं तो भी सर्व दुःखों के स्थान, नरक के समान और सभी शुभ गति के द्वार में परिघ (विघ्न) समान ऐसे घरवास में मेरा मन हि कैसे लगेगा ? तथा मेरे मोह-माया के बंधन तुट जाने से अब मैं सुख-दु:खादि द्वन्द्व के कारणभूत इस गृहवास में रहुं भी कैसे ? इत्यादि प्रकार से उन्हें प्रतिबुद्ध करे... __ अब इस उद्देशक का उपसंहार करते हुए सूत्रकार कहते हैं कि- पूर्व कहे गये सम्यग् ज्ञान को अपनी आत्मा में सदा अच्छी प्रकार से स्थापित करें... "इति" पद अधिकार की समाप्ति का सूचक है और "ब्रवीमि" पद का अर्थ है कि- श्री वर्धमानस्वामीजी के मुख से जो मैंने सुना है वह मैं (सुधर्मस्वामी) हे जंबू! तुम्हें कहता हुं... .. V सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि- जीवन में अनेकों उतार-चढ़ाव आते हैं। कभी मनुष्य को परिजनों का स्नेह मिलता है; तो कभी उनकी ओर से तिरस्कार भी सहना पड़ता है। परन्तु, प्रायः यह देखा गया है कि- जीवन विकास के पथ पर बढ़ने वाले व्यक्ति को परिजन मोहमाया के बंधन स्वरूप बनते हैं... भले ही, घर में रहते समय उससे सदा लड़तेझगड़ते रहे हों, परन्तु जब वह बोध को प्राप्त होकर संयम साधना के पथ पर चलने का उपक्रम करता है, तब उनका समस्त प्यार-स्नेह उमड़ पड़ता है और वे उसे अनेक तरह से संसार में रोकने का प्रयत्न करते हैं। उस समय मात-पितादि सभी परिजन उसे समझाते हैं कि- तू हमारे जीवन का आधार है। हमने सदा तुम्हारे जीवन का एवं दुःख-सुख का ध्यान रखा है। तुम्हें योग्य बनाने के लिए सभी तरह का प्रयत्न किया है। परन्तु, जब हमारी सेवा करने का अवसर उपस्थित हुआ, तब तुम हमें छोड़कर जा रहे हो। क्या यही तुम्हारा धर्म है ? क्या यह हि तुम्हारा कर्तव्य है ? जरा गंभीरता से सोचो-समझो ? इस तरह के आक्रन्दन भरे शब्द दुर्बल मन वाले साधक को विचलित कर देते हैं। अतः उनके अज्ञानमूलक अनुराग के समय में दृढ़ रहने का उपदेश दिया है। जो व्यक्ति स्नेहराग के प्रबल झोकों से भी विचलित नहीं होता, वही संयम-भाव में स्थिर रह सकता है। किंतु इस वचनों का यह अर्थ नहीं है कि- वह मुमुक्षु माता-पिता आदि परिजनों का तिरस्कार करके . घर से भाग जाए, परंतु यहां तात्पर्य इतना ही है कि- वह अपने सद्विचारों पर स्थित रहता हुआ, सद्भाव एवं स्नेह से परिजनों को समझाकर, उनकी अपेक्षाओं का निराकरण करके उनकी आज्ञा प्राप्त करे। यह ठीक है कि- यदि वैराग्य की कसौटी के लिए उसे किसी तरह
SR No.004437
Book TitleAcharang Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages368
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size8 MB
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