________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1 - 6- 1 - 8 (193) 27 अज्झोववण्णा अक्कंदकारी जणगा रूयंति, अतारिसे मुणी नो ओहंतरए जणगा जेण विप्पजढा, सरणं तत्थ नो समेइ, कहं नु नाम से तत्थ रमइ ? एयं नाणं सया समणुवासिज्जासि त्तिबेमि // 193 // // संस्कृत-छाया : तं पराक्रममाणं परिदेवमाना: मा त्यजत इति ते वदन्ति- छन्दोपनीताः अभ्युपपन्नाः आक्रन्दकारिणः जनकाः रुवन्ति, अतादृशः मुनिः न ओघं तरति, जनकाः येन अपोढाः शरणं तत्र न समेति, कथं नु नाम सः तत्र रमते ? एतद् ज्ञानं सदा समनुवासयेः इति ब्रवीमि // 193 // III सूत्रार्थ : संयम के लिए उद्यत हुए तत्त्वज्ञ व्यक्ति के प्रति उसके माता-पिता आदि परिजन इस प्रकार कहते हैं- हे पुत्र ! तू हमको मत छोड़, हम तेरे अभिप्राय के अनुसार रहेंगे... तुझ पर हमें बहोत हि सद्भाव है इत्यादि प्रकार से वे आक्रन्दन और रुदन करते हुए कहते हैं... अतः इस परिस्थिति में मात-पितादि का त्याग करनेवाला मनुष्य-साधु संसार-सागर को नहि तैर शकता.. किंतु यदि वह मुमुक्षु मात-पितादि को अशरण-भावना के द्वारा संसार का स्वरूप कहे एवं उनकी अनुमति से प्रव्रजित होकर पंचाचारात्मक संयमानुष्ठान में अपनी आत्मा को स्थापित करे... ऐसा मैं तुम्हें कहता हुं... IV टीका-अनुवाद : मात-पिता पुत्र एवं पत्नी आदिने जब जाना कि- यह व्यक्ति तत्त्व को जानकर गृहवास से मिकलकर तीर्थंकरादि महापुरुषों से आसेवित मोक्षमार्ग के लिये पराक्रम (पुरुषार्थ) कर रहा है; तब विलाप करते हुए वे मात-पितादि कहे कि- हमे छोडकर न जाइयेगा... करुण रुदन करते हुए वे मात-पितादि कहे कि- हम लोग आपके कहने के अनुसार रहते हैं, आपके आश्रित हैं; अतः आश्रित ऐसे हमारी अवगणना मत करो, इत्यादि प्रकार से आक्रंदन करते हुए मातपितादि जब रोतें हैं; तब ऐसी स्थिति में यदि वह मात-पितादि का त्याग करके घर से निकलता है; तो तीर्थंकरादि कहते हैं कि- वह मुनी नहि हो सकता है, और कभी पाखंडीओं की मायाजाल में फंसकर यदि वह मात-पितादि का त्याग करे तो भी मुनिगण के अभाव में संसार समुद्र नहि तैर शकता... ___किंतु इस परिस्थिति में संसार के स्वभाव को जाननेवाला वह मनुष्य मात-पितादि बंधुजनों को कहे कि- जब पापकर्मो के उदय से रोगादि हो या आयुष्य पूर्ण होने पर मरण आवे तब क्या मैं आप स्नेही-स्वजनों को शरण हो शकुंगा ? अर्थात् न तो रोग की पीडा