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________________ 26 1 -6-1-8 (193) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन को समझता है; तब उसे “अभिसंबुद्ध" कहतें हैं... उसके बाद सत् एवं असत् का विवेक करके संसार का त्याग करता है, तब उसे “अभिनिष्क्रांत" कहतें हैं... उसके बाद जब आचारांगादि शास्त्रों को ग्रहण एवं आसेवन शिक्षा से पढते हैं और ज्ञपरिज्ञा तथा प्रत्याख्यान परिज्ञा से उत्पन्न शुभ भाववाले वे चरणपरिणाम को पाकर अनुक्रम से शैक्षक, गीतार्थ, क्षपक, परिहारविशुद्धिक एवं एकाकिविहारि जिनकल्पिक मुनी होते हैं... स्थविर कल्प में गीतार्थ-आचार्यादि के पास यदि कोइ जीव बोध पाकर प्रव्रज्या की इच्छावाला उपस्थित हो; तब उसे प्रव्रज्या-दीक्षा देकर अपने उत्तराधिकारी शिष्य बनाते है... इत्यादि... V सूत्रसार : आगम में बताया गया है कि- मनुष्य ही सब कर्मों का क्षय करके मुक्ति को पा सकता है। मनुष्य के अतिरिक्त किसी भी गति या योनि में स्थित जीव निष्कर्म नहीं बन सकता। मनुष्य योनि में भी सभी मनुष्य निष्कर्म नहीं बनते हैं। प्रस्तुत सूत्र में निष्कर्म बनने वाले मनुष्यों के जीवन विकास का चित्रण किया गया है, गर्भ में उत्पन्न होने के समय से लेकर कर्म क्षय करने के स्वरूप का संक्षेप से वर्णन किया गया है। संसार के प्रत्येक जीव अपने कृत कर्म के अनुसार जन्म ग्रहण करते हैं। जिस ने मनुष्य गति का आयुष्य बांध रखा है, वे मनुष्य योनि में उत्पन्न होते हैं। माता-पिता के रज और वीर्य का संयोग होने पर जीव उसमें उत्पन्न होता है। वह जीव उस रज-वीर्य का आहार लेकर सात दिन में कलल स्वरूप शरीर बनाता है, दूसरे सात दिन में अर्बुद (शरीर) बनाता है, उसके बाद पेशि बनाता है, फिर वह जीव क्रमश: सघन शरीर बनाता है, उसके बाद शरीर के अंगोपांग बनाता हैं और फिर गर्भ का समय पूर्ण होने पर वह जन्म ग्रहण करता है और धीरे-धीरे विकास को प्राप्त होता है। समझदार होने के बाद मोहकर्म के क्षयोपशम से वह स्वयं या धर्म गुरु-आचार्यजी के संसर्ग से सद्ज्ञान को पाकर मुनि बन जाता है और तपसंयम में संलग्न होकर कर्मों का क्षय करने लगता है। इससे यह स्पष्ट हो गया कि- जो मनुष्य योनि को प्राप्त करके संयम में संलग्न होता है, ज्ञान, दर्शन और चारित्र स्वरूप पंचाचार की. साधना करता है, वह हि मनुष्य निष्कर्म बन सकता है। इस प्रकार संसार के स्वरूप को समझकर जब मनुष्य साधना के पथ पर चलने को तैयार होता है, उस समय उसके परिजन एवं स्नेही उसे क्या कहते हैं, वह बात सूत्रकार महर्षि सुधर्म स्वामी आगे के सूत्र से कहते हैं... I सूत्र // 8 // // 193 // 1-6-1-8 तं परिक्कमंतं परिदेवमाणा मा चयाहि इय ते वयंति- छंदोवणीया
SR No.004437
Book TitleAcharang Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages368
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size8 MB
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