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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 卐१-६-१-७ (192) 2 - - - - III सूत्रार्थ : हे शिष्यो ! ध्यानपूर्वक सुनो और समझो, मैं तुम्हें कर्म क्षय करने का उपाय बतलाता हूं। इस संसार में कतिपय जीव अपने किए हुए कर्मों के विपाकानुसार भिन्न-भिन्न उत्तम कुलों में माता-पिता के रज-वीर्य से गर्भ रूप में उत्पन्न हुए, जन्म धारण किया, क्रमशः परिपक्व वय के बने, एवं प्रतिबोध पाकर वे मनुष्य त्यागमार्ग अंगीकार करके अनुक्रम से महामुनि बने। IV टीका-अनुवाद : हे शिष्य ! यह जो मैं आपको एक गंभीर बात कहना चाहता हूं; वह आप एकाग्र होकर सुनीयेगा... प्रमाद का त्याग करके सावधानी से सुनीये... मैं आपको धूतवाद कहता हुं... धूत याने आठ प्रकार के कर्मो का धूनन याने निर्जरा... और वाद याने उन कर्मो को जानना और क्षय करना... अतः अब मैं जो धूतवाद कहुंगा; वह आप एकाग्र होकर सुनीयेगा... यहां नागार्जुनीय मतवाले कहतें हैं कि- आठ प्रकार के कर्मो के विनाश का उपाय अथवा अपने आत्मा को अप्रमत्त (जागृत्) होने का उपाय तीर्थंकर आदि कहतें हैं... वह उपाय इस प्रकार हैं... इस संसार में आत्मा का जो भाव वह आत्मता याने जीव का अस्तित्व... और जीव ने हि कीये हुए कर्मो का परिणाम (विपाक) और उन कर्मो के परिणाम से होनेवाली जीव की नारक-तिर्यंच-देव-मनुष्य स्वरूपम् विभिन्न अवस्था... इस संसार में ईश्वरवादी लोग ऐसा कहते हैं कि- ईश्वर-प्रजापति के आदेश से पृथ्वी आदि पांच भूत का परिणाम हुआ है... किंतु जिनमत कहता है कि- वास्तव में ऐसा नहि है... परंतु इस संसार में अपने अपने कीये हुए कर्मो के उदय से हि जीव पृथ्वीकायादि स्वरूप शरीर बनाते हैं... तथा जब यह जीव संज्ञी पंचेन्द्रिय मनुष्य होता है तब उच्च-नीच विभिन्न प्रकार के कुल में उत्पन्न होते हैं... जैसे कि- मनुष्यगति में जीव सर्व प्रथम पिता के शुक्रवीर्य एवं माता के शोणित याने लोही (रक्त) को ग्रहण करके शरीर बनाता है... वहां क्रम इस प्रकार है... प्रथम सात दिन तक “कलल" कहते हैं... बाद में सात दिन तक “अर्बुद" कहतें हैं और उस अर्बुद से हि पेशी होती है, और बाद में उस पेशी से घन-शरीर बनता वहां जब तक "कलल" है, तब तक वह “अभिसंभूत" होता है... और पेशी हो तब तक वह “अभिसंजात” होता है... और उसके बाद शरीर के अंग उपांग स्नायु मस्तक बाल (रोम) आदि क्रम से निवर्तन हुए तब उसे “अभिनिर्वृत्त” कहते हैं... उसके बाद जन्म पाकर जब धर्मश्रवण के योग्य अवस्था होती है, और जब धर्मकथादि सुनकर पुन्य एवं पाप
SR No.004437
Book TitleAcharang Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages368
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size8 MB
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