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________________ 24 // 1-6-1-7 (192) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन अब जो जीव ऐसे हिंसक नहि हैं उनके अपने आप का स्वरूप एवं आत्मा की गणवत्ता का स्वरूप सूत्रकार महर्षि आगे के सूत्र से कहेंगे... V सूत्रसार : __ प्रस्तुत सूत्र में बताया है कि- मोह कर्म से आवृत्त अज्ञानी जीव हिंसा आदि दुष्कर्मों से अनेक प्रकार के दुःखों एवं रोगों का संवेदन करते हैं। फिर भी वे विषयकषाय से निवृत्त नहीं होते। वे उन दुःखों से छुटकारा पाने के लिए भी आरम्भ-समारम्भ एवं विषय-कषाय का आश्रय लेते हैं। इस प्रकार वे दुःख परम्परा को और बढ़ाते हैं तथा महादुःख एवं महाभय के गर्त में जा गिरते हैं। विषय-वासना में आसक्त व्यक्ति सदा भयभीत बना रहता हैं। क्योंकिवह दूसरे प्राणियों को त्रास देता है, डराता है। इसलिए स्वयं भी दूसरों से डरता रहता हैं। सिंह जैसा शक्तिशाली जानवर भी-जो हाथी जैसे विशालकाय प्राणी को मार डालता है, वह भी अन्य बलवान प्राणी से सदा भयभीत रहता है। वह जब भी चलता है; तब प्रत्येक कदम पर पीछे मुड़कर देखता है। इसका कारण यह है कि- वह दूसरे प्राणियों के मन में भय उत्पन्न करता है, इसलिए वह स्वयं भी भय ग्रस्त रहता है। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि- दूसरों को संत्रस्त करने वाला व्यक्ति स्वयं त्रास एवं भय से पीड़ित रहता है। वह अनेक पाप कर्मों का बन्ध करके अनेक दुःखों एवं रोगों का संवेदन करता है। . अतः साधक को विषय-कषाय एवं आरम्भ-समारम्भ के दुष्परिणामों को जानकर उससे दूर रहना चाहिए। उसे किसी भी परिस्थिति में आरम्भ-समारंभ नहीं करना चाहिए। रोग आदि के उत्पन्न होने पर भी आरम्भ जन्य दोषों में प्रवृत्त न होकर समभाव पूर्वक उसे सहन करना चाहिए और कर्मों की निर्जरा के लिए सदा संयम में संलग्न रहना चाहिए।, ___ ऐसे संयम-निष्ठ साधकों के गुणों का उल्लेख करते हुए सूत्रकार महर्षि सुधर्म स्वामी आगे का सूत्र कहते हैं... I सूत्र // 7 // // 192 // 1-6-1-7 आयाण भो सुस्सूस ! भो धूयवायं पवेयइस्सामि, इह खलु अत्तत्ताए तेहिं तेहिं कुलेहिं अभिसेएण अभिसंभूया अभिनिव्वुडा अभिसंवुड्ढा अभिसंबुद्धा अभिनिक्कंता अणुपुव्वेण महामुणी // 192 // // संस्कृत-छाया : आजानीहि भोः ! शुश्रूषष्व ! भोः धूतवादं प्रवेदयिष्यामि, इह खलु आत्मतया तैः तैः कुलैः अभिषेकेण अभिसम्भूताः अभिसञ्जाता: अभिनिवृत्ता: अभिसंवृद्धाः अभिसम्बुद्धाः अभिनिष्क्रान्ता: अनुपूर्वेण महामुनयः // 192 //
SR No.004437
Book TitleAcharang Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages368
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size8 MB
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