________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1-6-1-6(191) 23 IV टीका-अनुवाद : ____ कर्मो के विपाक से बहु दुःख पाये हुए; अतः अतिशय दुःखी जीवों के साथ अप्रमत्त भाव से व्यवहार करें अर्थात् उन्हें कष्ट न दें... इस प्रकार तीर्थंकरादि स्थविर साधु बार बार उपदेश देते हैं... क्योंकि- राग-द्वेषादि के अनादि काल के अनन्त भावों के अभ्यास से विषय भोगो में आसक्त एवं इच्छा स्वरूप कामविकारों से मनुष्य अगणित प्रकार से अन्य जीवों को कष्ट देते हैं; अतः विषयभोगों की निवृत्ति के लिये बार बार उपदेश देने में “पुनरुक्त" दोष नहि लगता... तथा काम-भोगादि में आसक्त प्राणी असार एवं क्षणभंगुर इस औदारिक शरीर के साता-सुख के लिये पृथ्वीकायादि जीवों की हिंसा करके बहोत सारे कर्म बांधकर अनेक बार वध (मरण) को पाते हैं... पुनः कटुविपाकवाले कामभोगादि में आसक्त वह प्राणी मोहोदय से पीडित हो कर कार्य एवं अकार्य का विवेक न रखता हुआ अन्य जीवों को अनेक प्रकार के क्लेश-कष्ट पहुंचाता है, और कीये हुए कर्मबंध के उदय में अनेक बार वध (मरण) को पाता हैं.... और यदि शरीर में कुष्ठ, गंड, राजयक्ष्म (क्षयरोग-टी.बी.) आदि रोग उत्पन्न होतें हैं; तब वह अज्ञानी मनुष्य रोग की पीडा से आकुल-व्याकुल होकर रोगों की चिकित्सा के लिये अनेक त्रस एवं स्थावर जीवों को परितापना पहुंचाता है... जैसे कि- लावकादि प्राणीओं के पिशित (मांस) के द्वारा क्षय रोग का उपशम होता है; इत्यादि... इत्यादि बातें सुनकर अपने जीवितव्य की आशा से वह अन्य जीवों को मारने के लिये प्रवृत्त होता है... किंतु वह अज्ञानी मनुष्य ऐसा ऐसा नहि सोचता कि- यह रोग मेरे कीये हुए अशुभ कर्मो के उदय से हुआ है... और उन कर्मो के क्षय से हि रोग का उपशमन होगा... तथा अन्य प्राणीओं को मारने से होनेवाली चिकित्सा से तो और भी पापकर्मो का बंध होने से रोगों की पीडा तो अत्यधिक असह्य होगी... इत्यादि... अत: जिनेश्वर परमात्मा कहते हैं कि- हे श्रमण ! निर्मल विवेक चक्षु से देखिये कि- यह सावद्य चिकित्सा-विधि कर्मो के उपशम के लिये तो समर्थ है हि नहि... अत: सत् एवं असत् के विवेकवाले श्रमणों को चाहिये कि- ऐसे पापबंध के कारणवाली चिकित्साओं का त्याग करें... तथा तीनों भुवन के स्वभाव को जाननेवाले हे मुनी ! आप देखो कि- यह जो प्राणीओं के वध स्वरूप जो पाप है, वह नरकादि दुर्गति का कारण होने से महाभय स्वरूप हि है... इसीलिये कीसी भी प्राणी का वध नहि करना चाहिये... क्योंकि- एक प्राणी का वध करने से भी हिंसक को आठों प्रकार के कर्मो का बंध होता है... और उस कर्मो के द्वारा वह पापात्मा अनन्त संसार में परिभ्रमण करता है... अत: महर्षिओने प्राणी-वध महाभय स्वरूप कहा है... इस प्रकार यहां रोग एवं कामभोग की आतुरता से पापाचरण में प्रवृत्त जीवों को कहा गया है कि- प्राणी-वध हि महाभय है, इत्यादि...