________________ 22 // 1-6-1-6(191) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन ____ अत: मुमुक्षु पुरुष को संसार के सभी प्राणियों एवं उनके परिभ्रमण करने के कारणों से परिज्ञात होना चाहिए। और साधक को संसार में भटकाने वाले दुष्कर्मों से अलग रहना चाहिए। इसी तरह संसार का चिन्तन उसे कुमार्ग से हटाकर सन्मार्ग की ओर कदम बढाने की प्रेरणा देता है और इससे उसकी साधना में तेजस्विता आती हैं। अत: साधक को वीतराग प्रभु द्वारा प्ररूपित आगमों के द्वारा संसार के स्वरूप का सम्यक् बोध प्राप्त करके उससे मुक्त होने का प्रयत्न करना चाहिए, जिससे वह निर्भय बनकर निष्कर्म स्थिति-मोक्ष को पा सके। ___ सात प्रकार का भय, मोहनीय कर्म के उदय से होता है। अतः मोहनीय कर्म का क्षय या क्षयोपशम होने पर आत्मा में निर्भयता आती है। यह बात सूत्रकार महर्षि सुधर्म स्वामी आगे के सूत्र से कहेंगे। I सूत्र // 6 // // 191 // 1-6-1-6 बहुदुक्खा हु जंतवो, सत्ता कामेसु माणवा, अबलेण वहं गच्छंति शरीरेण पभंगुरेण अट्टे से बहुदुक्खे इइ बाले पकुव्वइ, एए रोगा बहू नच्चा आउरा परियावए नालं पास, अलं तव एएहिं, एयं पास मुणी ! महन्भयं नाइवाइज कंचणं // 191 // // संस्कृत-छाया : बहुदुःखाः खलु जन्तवः, सक्ताः कामेषु मानवा: अबलेन वधं गच्छन्ति शरीरेण प्रभगुरेण, आर्त्तः सः महादुःख, इति बालः प्रकरोति, एतान् रोगान् ज्ञात्वा. आतुराः परितायेयुः नाऽलं पश्य, अलं तव एभिः, एतत् पश्य हे मुने ! महद्भयम्, नाऽतिपातयेत् कञ्चन // 191 // // सूत्रार्थ : हिंसादि कर्मों से जीव बहुत दु:खी हो रहे हैं। संसारी मनुष्य काम भोगों में आसक्त हैं। क्षण भंगुर निर्बल शरीर के द्वारा जीव कष्ट-पीडाओं को प्राप्त करता हैं, वे रोगादि से पीड़ित जीव बहुत दु:खी हैं। बाल-अज्ञानी आतुर प्राणी उत्पन्न हुए गण्ड, कुष्ठ, राजयक्ष्मादि रोगों को जानकर उनकी निवृत्ति के लिए अन्य प्राणियों को परिताप देता है। परन्तु, हे शिष्य ! तू यह देख, सम्यग्विचार कर कि- हिंसा प्रधान चिकित्सा से कर्म जन्य रोग उपशान्त नहीं होता। अत: हे शिष्य ! तुझे हिंसामय औषधि से कदापि उपचार नहीं करना चाहिए। यह सावद्य औषधोपचार महाभय का कारण है। इसलिए तुझे किसी भी जीव का अतिपात याने वध नहीं करना चाहिए।