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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1-6-1 - 5 (190) 21 भस्मक-यह रोग वात-पित्त की अधिकता एवं कफ की अल्पता से होता है। इस में भूख अधिक लगती है, भोजन करते रहने पर भी तृप्ति नहीं होती। // 12 // कंपरोग-इस से शरीर कांपता रहता है। यह रोग वायु के प्रकोप से होता है। // 13 // पीठसपी-इस रोग में रोगी लाठी के आश्रय से ही चल सकता है। // 14 // श्लीपद-इस रोग में पैर बहुत बड़ा मोटा एवं भारी हो जाता है। // 15 // मधुमेह-इस में मूत्र में मधु जाता है। इसे अंग्रेजी में डायाबिटिज या शूगर (चीनी) की बीमारी कहते हैं। // 16 // इस प्रकार विषय-भोगों में आसक्त व्यक्ति अनेक प्रकार के कष्टों का संवेदन करता हुआ संसार में परिभ्रमण करता है। अत: मुमुक्षु पुरुष को सम्यग्ज्ञान से भोगासक्ति के परिणाम स्वरूप प्राप्त कष्टों एवं उनसे छुटकारा पाने के स्वरूप को जानकर पंचाचारात्मक संयम का पालन करना चाहिए। क्योंकि- ज्ञान से ही साधक संयम के पथ को जान सकता है एवं पंचाचार स्वरूप संयम का आचरण करके निरावरण ज्ञान को प्राप्त करके सिद्ध-बुद्ध एवं मुक्त बन सकता है। अतः साधक को सदा साधना में संलग्न रहना चाहिए। इसी विषय को और स्पष्ट करते हुए सूत्रकार महर्षि सुधर्म स्वामी कहते हैं कि संसार में अनन्त जीव हैं। इन्द्रिय आदि साधनों की समानता की अपेक्षा से उनके 5 भेद किए गए हैं। अर्थात् जीवों की पांच जातियां कहते है-१-ऐकेन्द्रिय, 2- द्वीन्द्रिय, ३त्रीन्द्रय, ४-चतुरिन्द्रिय, और 5- पंचेन्द्रिय। एकेन्द्रिय में स्पर्श इन्द्रियवाले पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु एवं वनस्पति के सभी जीव समाविष्ट हो जाते हैं। द्वीन्द्रिय में स्पर्श और जिव्हा दो इन्द्रिय वाले लट आदि जीवों को लिया गया हैं। इसी तरह त्रीन्द्रिय में स्पर्श, जिह्वा, घ्राण वाले चींटी, जूं आदि जीवों को, चतुरिन्द्रिय में स्पर्श, जिह्वा, घ्राण और चक्षु इन्द्रिय वाले मच्छर-मक्खीबिच्छू आदि जीवों को तथा पञ्चेन्द्रिय में स्पर्श जिह्वा, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र इन्द्रिय वाले नरक, पशु-पक्षी, मनुष्य और देवयोनि के जीवों को गिना गया है। इस तरह से समस्त संसारी जीव अपने कृत कर्म के अनुसार विभिन्न जाति योनि को प्राप्त करते हैं। संसार में कुछ प्राणी अंधे भी होते हैं। अंधत्व द्रव्य और भाव से दो प्रकार का होता है। द्रव्य अंधत्व का अर्थ है-आंखों में देखने की शक्ति का न होना और भाव अंधत्व का तात्पर्य है- पदार्थों के यथार्थ बोध का न होना। द्रव्य अंधत्व आत्मा के लिए इतना अहितकर नहीं है, जितना कि- भाव अंधत्व अहित करता हैं। भाव अंधत्व अर्थात अज्ञान एवं मोह के वश जीव विषय वासना में संलग्न रहता हैं और परिणाम स्वरूप पापकर्म का बन्ध करके संसार में परिभ्रमण करता है, अनेक तरह की छेदन-भेदनादि वेदनाओं का संवेदन करता हैं।
SR No.004437
Book TitleAcharang Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages368
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size8 MB
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