________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका // 1-8 - 8 - 12 (251) म 193 की योग्यता का उल्लेख किया गया है। उक्त अनशनों को स्वीकार करेन वाला मुनि बाह्य एवं अभ्यन्तर ग्रन्थि से मुक्त एवं आचारांग आदि आगमों का ज्ञाता होना चाहिए। क्योंकि आगम ज्ञान से संपन्न एवं परिग्रह तथा कषायों से निवृत्त मुनि ही निर्भयता के साथ आत्मचिन्तन में संलग्न रह सकता है एवं परीषहों को समभाव पूर्वक सहन कर सकता है। इंगित मरण अनशन के लिए कहा गया है कि- गीतार्थ मुनि ही इंगितमरण अनशन का स्वीकार कर सकता है। इस अनशन में मर्यादित भूमि से बाहर हलन-चलन एवं हाथपैर आदि का संकोच एवं प्रसारण नहीं किया जा सकता है। अतः इस अनशन को श्रुतज्ञान सम्पन्न एवं दृढ संहनन वाला मुनि ही ग्रहण कर सकता है। इसी बात को बताने के लिए सूत्रकार ने 'दवियस्स वियाणओ' इन दो पदों का उल्लेख किया है। इनका अर्थ वृत्तिकार ने इस प्रकार किया है कि- “इंगितमरण अनशन व्रतको स्वीकार करने वाला मुनि कम से कम नव (9) पूर्व का ज्ञाता हो।” इससे यह भी स्पष्ट हो जाता है कि- इतना ज्ञान प्राप्त करने वाले मुनि का संहनन बल कितना दृढ होगा? अर्थात् वे दृढ संहननवाले होते हैं... इस विषय को और स्पष्ट करते हुए सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहते हैं... I सूत्र // 12 // // 251 // 1-8-8-12 अयं से अवरे धम्मे नायपुत्तेण साहिए / आयवज्जं पडीयारं विजहिज्जा तिहा तिहा // 251 // ___ II संस्कृत-छाया : अयं सः अपरः धर्मः ज्ञातपुत्रेण कथितः / आत्मवर्ज प्रतिचारं विजह्यात् त्रिधा त्रिधा // 251 // III सूत्रार्थ : इस भक्तप्रत्याख्यान से भिन्न इंगितमरण रूप धर्म का प्रतिपादन भगवान महावीर ने किया है। इसे स्वीकार करने वाला मुनि आत्म-चिन्तन के अतिरिक्त अन्य क्रियाओं का तीन करण और तीन योग से परित्याग करे। IV टीका-अनुवाद : भक्तपरिज्ञा से इंगित मरण में यह विशेष विधि है कि- जो वर्धमान स्वामीजी ने बारह पर्षदा को देशना में कही है... जैसे कि- प्रथम प्रव्रज्यादि विधि... तथा पूर्वोक्त विधि से संलेखना... तथा उपकरणादि का त्याग करके निर्जीव स्थंडिल भूमी में जाकर आलोचना एवं