________________ 194 // 1-8-8-13 (252) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन प्रतिक्रमण करके पुनः पांच महाव्रतों का उच्चारण करे और चारों प्रकार के आहारादि का पच्चक्खाण करके संथारे में रहे... यहां यह विशेष है कि- साधु अपने आत्मा के हेतु को छोडकर अन्य कोइ भी हेतु से अंग याने हाथ-पैर आदि के संचालन का त्रिविध-त्रिविध से त्याग करें... अर्थात् मनवचन एवं काया से तथा करण-करावण एवं अनुमोदन के भेद से त्रिविध-त्रिविध से अंगसंचालन का त्याग करें... अर्थात् अपने आत्मा के व्यापार के सिवा अन्य कायादि के हेतु से संभवित सभी व्यापार का त्याग करें... अर्थात् वह साधु खुद अपने आत्मा के लिये शरीर का उद्वर्तन एवं परिवर्तनादि करें तथा सर्व प्रकार से प्राणि-संरक्षण अर्थात् प्राणातिपातादि का विरमण भी करें... यह बात आगे की गाथा से सूत्रकार महर्षि कहेंगे... V सूत्रसार : यह हम देख चुके हैं कि- इंगितमरण भक्तप्रत्याख्यान से भिन्न है और इसकी साधना भी विशिष्ट है। भगवान महावीर ने इसके लिए बताया है कि- शारीरिक क्रियाओं के अतिरिक्त नियमित भूमि में कोई भी कार्य न करे और मर्यादित भूमि के बाहर शारीरिक क्रियाएं भी न करे। आत्मा के प्रत्येक प्रदेश पर कर्मो की अनन्त वर्गणाएं स्थित हैं, उन्हें आत्म प्रदेशों से सर्वथा अलग करना साधक के लिए अनिवार्य है और उन्हें अलग करने का साधन हैज्ञान और संयम। जैसे जल एवं साबुन से वस्त्र का मैल दूर करने पर वह स्वच्छ हो जाता है। इसी तरह ज्ञान और संयम की साधना से आत्मा पर से कर्म हट जाता है और आत्मा अपने शुद्ध रूप को प्राप्त कर लेती है। अतः साधक को सदा ज्ञान एवं संयम की साधना में ही संलग्न रहना चाहिए। इन गुणों की प्राप्ति का मूल संयम की साधना हि है। अत: उसका उल्लेख करते हुए सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहते हैं... I सूत्र // 13 // // 252 // 1-8-8-13 . हरिएसु न निवज्जिज्जा, थंडिले मुणियासए / विओसिज्जा अणाहारो पुट्ठो तत्थ अहियासए // 252 // II संस्कृत-छाया : हरितेषु न शयीत, स्थंडिलं मत्वा शयीत / व्युत्सृज्य अनाहारः, स्पृष्टः तत्र अध्यासयेत् // 252 //