________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1 - 8 - 8 - 14 (253) ; 195 III सूत्रार्थ : __ अनशन करने वाला मुनि हरित तृणादि वनस्पति पर शयन न करे। किंतु शुद्ध निर्दोष भूमि देखकर उस पर शयन करे, तथा बाह्याभ्यन्तर उपधि को छोड़कर, आहार से रहित होता हुआ विचरे और यदि वहां पर कोई परीषह उत्पन्न हो तो उसे समभाव पूर्वक सहन करे। IV. टीका-अनुवाद : हरित याने दुर्वा अंकुर आदि वनस्पति के उपर साधु न बैठे, न शयन करे, किंतु निर्जीव (स्थंडिल) भूमी के उपर हि बैठे या शयन करे... तथा बाह्य उपधि वस्त्र-पात्र आदि तथा अभ्यंतर उपधि मिथ्यात्व एवं कषायादि का त्याग कर के, अनशन का स्वीकार करनेवाला साधुः संथारे की परिस्थिति में संभवित परीषह एवं उपसर्गो को शमभाव से सहन करे... V सूत्रसार : अनशन व्रत को स्वीकार करने वाला मुनि किसी भी प्राणी को पीड़ा न दे। सभी प्राणियों की रक्षा करना मुनि का धर्म है। क्योंकि- वह छ: काय का रक्षक कहलाता है। इसलिए मुनि को अपनी तृण शय्या ऐसे स्थान पर बिछानी चाहिए जहां हरियाली बीज, अंकुर आदि न हो। इसी तरह सचित्त मिट्टी एवं जल आदि तथा छोटे-मोटे जंतुओ की भी विराधना न हो / मुनि को चाहिए कि- वह आहार आदि का त्याग करके सर्वथा निर्दोष भूमि पर तृण शय्या बिछाकर अनशन करे एवं उस समय उत्पन्न होने वाले परीषहों को समभाव पूर्वक सहन करता हुआ आत्म चिन्तन में संलग्न रहे। .. इस विषय पर और प्रकाश डालते हुए सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहते हैं... सूत्र // 14 // // 253 // 1-8-8-14 इंदिएहिं गिलायंतो, समियं आहारे मुणी / तहावि से अगरिहे, अचले जे समाहिए // 253 // संस्कृत-छाया : इन्द्रियैग्ायमानः शमितमाहारयेत् मुनिः / तथाप्यसौ अगर्दाः, अचलो यः समाहितः॥ 253 // III सूत्रार्थ : आहार न करने के कारण इन्द्रियों द्वारा ग्लानि को प्राप्त हुआ मुनि अपनी प्रतिज्ञा