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________________ 196 1 -8- 8 - 15 (254) म श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन पर अटल है, यदि वह नियमित भूमि में अङ्गोपांग का प्रसारण करता है तब भी वह निन्दाका पात्र नहीं बनता है। IV टीका-अनुवाद : अनशन को आदरनेवाला मुनि आहार के अभाव में इंद्रियों की क्षीणता होने पर भी आत्मभाव में रहकर सौम्यता का आलंबन लें... अर्थात् मुनि आर्तध्यान न करें... किंतु समाधिभाव में रहें... वह इस प्रकार-यदि शरीर की संकुचित स्थिति से उद्वेग होवे तो हाथपैर आदि को लंबा करें... यदि इस स्थिति में भी असमाधि हो तब संथारे में बैठ जाये... अथवा इंगित प्रदेश में धीरे धीरे आवागमन करें... इंगितमरण अनशन की विधि का पूर्णतया पालन करे... वह इस प्रकार-अचल परिणामवाला मुनि इंगित प्रदेश में अपने आप शरीर से हलन-चलन अर्थात् स्वीकृत इंगितमरण की विधि में सावधान... अचल... तथा समाहित याने धर्मध्यान एवं शुक्लध्यान में अपना मन लगाया होने से स्थिर मनवाला वह साधु भाव से अचल होने के साथ इंगित प्रदेश में आवागमन भी करें... V सूत्रसार : इंगित मरण स्वीकार करने वाले मुनि के लिए बताया गया है कि- यदि शरीर में ग्लानि उत्पन्न हो तो उसे उस वेदना को समभाव पूर्वक सहन करना चाहिए और अपने चिन्तन को आत्मा की ओर लगाना चाहिए। यदि वह मुनि अपने मर्यादित प्रदेश में हाथ-पैर आदि को संकोच या प्रसार करता है तो भी वह अपने व्रत से नहीं गिरता है। क्योंकि- उसने मात्र मर्यादित स्थान से बाहर जाकर अंग संचालन करने का त्याग किया है। अतः मर्यादित भूभाग में अंगों का संचालन करना अनुचित नहीं है। इस तरह वह अपनी मर्यादा को ध्यान में रखते हुए समभाव पूर्वक साधना में संलग्न रहे... इसी विषय को और स्पष्ट करते हुए सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहतें हैं... सूत्र // 15 // // 254 // 1-8-8-15, अभिक्कमे पडिक्कमे, संकुचए पसारए / काय साहारणट्ठाए, इत्थं वावि अचेयणो // 254 // II संस्कृत-छाया : अभिक्रामेत् प्रतिक्रामेत् संकोचयेत् प्रसारयेत् / कायसाधारणार्थं अत्रापि अचेतनः // 254 //
SR No.004437
Book TitleAcharang Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages368
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size8 MB
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