________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 卐१- 9 -1-3 (267) // 233 * अभिरुज्झ कायं विहरिंसु, आरूसिया णं तत्थ हिंसिसु // 267 // - II संस्कृत-छाया : चतुरः समर्धिकान् मासान्, बहवः प्राणिजातयः समागत्य / आरुह्य कायं विजहुः, आरुह्य तत्र हिंसन्ति स्म // 267 // III सूत्रार्थ : - भगवान महावीर के शरीर एवं देवदूष्य वस्त्र से निकलने वाली सुवास से आकर्षत होकर बहुत सी जातियों के भ्रमर आदि क्षुद्र जंतु उनके शरीर पर बैठने एवं रहने लगे और करीबन साढ़े चार महीने तक उनके शरीर पर डंक मारते रहे। IV टीका-अनुवाद : प्रव्रज्या ग्रहण करने के वख्त देवों ने परमात्मा के शरीर के उपर जो दिव्य सुगंधि चंदन आदि का विलेपन कीया था, उस सुगंध से आकर्षित हुए भ्रमर आदि अनेक क्षुद्र जंतु चार महिने से अधिक समय पर्यंत लोही एवं मांस के भक्षण के लिये परमात्मा के शरीर पे आये और यहां वहां चारों तरफ डंख दीये... V. सूत्रसार : दीक्षा के पूर्व भगवान को सुगन्धित द्रव्यों से मिश्रित जल से स्नान कराया गया था और उनके शरीर पर चन्दन आदि सुगन्धित पदार्थ लगाए थे। उन पदार्थों एवं देवदूष्य वस्त्र से निकलने वाली सुवास से आकर्षित होकर भ्रमर, मधु-मक्खी आदि अनेक जंतु उनके शरीर पर बैठने लगे एवं सुगंध का आनन्द लेने के साथ-साथ भगवान के शरीर पर डंक भी मारने लगे। कुछ जंतुओं ने तो भगवान के शरीर को ही आवास स्थान बना लिया। इतना कष्ट होने पर भी भगवान उन्हें हटाते नहीं थे। वे शारीरिक चिन्तन से ऊपर उठकर केवल आत्म चिन्तन धर्मध्यान में संलग्न रहते थे। स्वयंसंबुद्ध भगवान महावीर की साधना विशिष्ट साधना है। सामान्य साधक अपने शरीर पर बैठने वाले मच्छर आदि जन्तुओं को यतना पूर्वक हटा भी देता है। वह साधु इतना ध्यान अवश्य रखता है कि- अपने शरीर का बचाव करते हुए दूसरे के शरीर का नाश न हो। इसलिए साधक प्रमार्जनी के द्वारा धीरे से उस जंतु को बिना आघात पहुंचाए अपने शरीर से दूर कर देता है। परन्तु, विशिष्ट साधक उन्हें हटाने का प्रयत्न नहीं करते। वे अपने मन में भी उनको दूर करने की कल्पना तक नहीं करते। क्योंकि- वे शरीर पर से अपना ध्यान हटा चुके हैं। उनका चिन्तन केवल आत्मा की ओर लगा हुआ है। इस तरह भगवान महावीर