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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका #1- 9 - 4 - 5 (322) 307 शीतकाल में भी कभी कभी छाया में धर्म और शुक्ल ध्यान ध्याते थे। IV टीका-अनुवाद : श्रमण भगवान् महावीरस्वामीजी शब्दादि विषयों में प्रवृत्त श्रोत्रादि इंद्रियों का निग्रह कर के सदा संयमानुष्ठान में हि उद्यमशील होते थे... श्रमण भगवान महावीरस्वामीजी बहु नहि बोलतें, किंतु कभी कभी प्रश्न का उत्तर देते थे... यदि परमात्मा सर्वथा नहि बोलतें, तब ग्रंथकार ऐसा कहतें कि- “परमात्मा कुछ भी बोलतें नहिं थें' इत्यादि... तथा एकबार परमात्मा ने शिशिर ऋतु काल में छाया में हि खडे रहकर धर्मध्यान एवं शुक्लध्यान में उद्यम कीया था... V सूत्रसार : साधना के पथ पर गतिशील भगवान महावीर विषय-विकारों से सर्वथा निवृत्त हो गए थे। वे साधना काल में प्रायः मौन ही रहे थे और किसी के पूछने पर उत्तर देना अत्यावश्यक हुआ तो एक ही बार बोलते थे। वे शीत आदि की परवाह नहीं करते थे। सर्दी की ऋतु में भी छाया में खड़े रहकर हि ध्यान करते थे। इस तरह वे शरीर की चिन्ता न करते हुए सदा आत्म-चिन्तन में ही संलग्न रहते थे। संयम-साधना में योगों का गोपन करना महत्त्वपूर्ण माना गया है। मन, वचन और काया इन तीनों योगों में मन सबसे अधिक सूक्ष्म और चंचल है। उसे वश में रखने के लिए काय और वचन योग को रोक रखना आवश्यक है। वचन का समुचित गोपन होने पर मन को सहज ही रोका जा सकता है और मन आदि योगों का गोपन करने से आत्मा अपने शुद्ध स्वरूप को प्राप्त करती है। - आगम में बताया है कि- मन का गोपन करने से आत्म-चिन्तन में एकाग्रता आती है अतः साधु संयम का आराधक होता है। वचन गुप्ति से आत्मा निर्विकार होती है और निविकारता से अध्यात्म योग की साधना सफल होती है। काय गुप्ति से संवर की प्राप्ति होती है और उससे आश्रव-पापकर्म का आगमन रुकता है। इसी तरह मन समाधारणा से जीव एकाग्रता को जानता हुआ ज्ञान पर्याय को जानता है और उससे सम्यक्त्व का शोधन करता है और भिथ्यात्व की निर्जरा करता है। वचन समाधारणा से आत्मा दर्शन पर्याय को जानता है, उससे दर्शन की विशुद्धि करके सुलभ बोधित्व को प्राप्त करता है और दुर्लभ बोधिपन के हेतुभूत कर्मो कि निर्जरा करता है। कायसमाधारणा से जीव चारित्र पर्याय को जानता है और उससे विशुद्ध चारित्र को प्राप्त करता है एवं चार घातिकर्मों का क्षय करके केवलज्ञान को प्राप्त करता है और तत्पश्चात् अवशेष चार अघातिकर्मों को क्षय करके सिद्ध-बुद्ध-निरंजन
SR No.004437
Book TitleAcharang Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages368
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size8 MB
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