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________________ 308 // 1- 9 - 4 - 4-5 (321-322) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन निराकार हो जाता है, अर्थात् समस्त कर्म बन्धन से मुक्त हो जाता है। इस तरह योगों का गोपन करने से आत्मा निष्कर्म बन जाता है। इस तरह भगवान महावीर भाषा का गोपन करते हुए एकाग्र मन से आत्म चिन्तन में संलग्न रहते थे। उनके चिन्तन की एकाग्रता एवं परीषहों की सहिष्णुता का वर्णन करते हुए सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहते हैं... सूत्र // 4 // // 321 // 1-9-4-4 आयावयइ गिम्हाणं, अच्छइ उक्कुड्डुए अभित्तावे। अदु जाव इत्थ लूहेणं ओयणमंथुकुम्मासेणं // 321 // II संस्कृत-छाया : आतापयति ग्रीष्मेषु, तिष्ठति उत्कुटुकः अभितापम् / अथ यापयति स्म रुक्षेण ओदन मन्थु कुल्माषेण // 321 // III सूत्रार्थ : भगवान महावीर ग्रीष्म ऋतु में उत्कुटुक आसन से सूर्य के सन्मुख होकर आतापना लेते थे। और धर्म साधना के कारण रूप शरीर के लिए चावल, बेर का चूर्ण एवं उड़द के बाकले आदि रूक्ष आहार लेकर अपना निर्वाह करते थे। IV टीका-अनुवाद : श्री महावीर स्वामीजी ने एक बार ग्रीष्मकाल में आतापना ली थी... वह इस प्रकारपरमात्मा उत्कटुकासन में रहकर ताप के अभिमुख मुख कर के आतापना लेतें थें... इत्यादि... तथा परमात्मा अंत-प्रांत रूक्ष आहारादि से देह का निर्वाह करते थे... वह इस प्रकार- ओदन याने कोदरे के चावल, मंथु याने बदरचूर्णादि... तथा कुल्माष याने उडद धान्य विशेष, किजो सेके हुए हो या बाफे हुए हो इत्यादि तुच्छ-असार आहारादि ग्रहण करते थे... I सूत्र // 5 // // 322 // 1-9-4-5 एयाणि तिन्नि पडिसेवे अट्ठमासे अजावयं भगवं। अपि इत्थ एगया भगवं अद्धमासं अदुवा मासंपि // 322 // II संस्कृत-छाया : एताणि त्रीणि प्रतिसेवते, अष्टौ मासानयापयत् भगवान। अपि अत्र एकदा
SR No.004437
Book TitleAcharang Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages368
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size8 MB
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