________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका // 1- 9 - 4 - 4-5 (321-322) 309 - भगवान् अर्द्धमासं अथवा मासमपि // 322 // III सूत्रार्थ : श्रमण भगवान महावीर ने उक्त ओदनादि तीनों पदार्थों के द्वारा आठ मास तक समय यापन किया ! और कभी 2 भगवान ने आधे मास या एक मास तक जल पानी भी नहीं किया। IV टीका-अनुवाद : __ यहां किसी मंदमतिवाले शिष्य को प्रश्न होवे कि- क्या उपर कहे गये ओदन, मंथु एवं कुल्माष तीनों मीलाकर परमात्मा आहार करते थे ? या नहिं ? इस प्रश्न के उत्तर में ग्रंथकार महर्षि कहते हैं कि- हां, तीनों प्रकार के या कोइ भी दो या एक प्रकार का आहार परमात्मा लेते थे... और यह आहार ऋतुबद्धकाल याने आठ महिने तक लेते थे... जब कि- चौमासे के दिनों में तो परमात्मा अचित्त जल भी पंद्रह दिन या महिने में एक बार लेते थे... v सूत्रसार : प्रस्तुत उभय गाथाओं में भगवान महावीर की तपस्या का दिग्दर्शन कराया गया है। जैसे भगवान शीतकाल में छाया में ध्यान करते थे, उसी तरह ग्रीष्म काल में उत्कट आसन से सूर्य के सम्मुख स्थित होकर ध्यानस्थ होते थे और रूक्ष आहार से अपने शरीर का निर्वाह - करते थे। . आहार का मन एवं इंद्रियों की वृत्ति पर भी असर होता है। प्रकाम एवं प्रणीत आहार से मन में विकार जागृत होता है और इन्द्रिएं विषयों की ओर दौडती है। इस लिए साधक के लिए प्रकाम-गरिष्ठ आहार के त्याग का विधान किया गया है। साधक केवल शरीर का निर्वाह करने के लिए आहार करता है और वह रुक्ष आहार से भली-भांति हो जाता है। उससे मन में विकार नहीं जागते और इन्द्रिएं भी शांत रहती हैं। जिससे साधना में तेजस्विता आती है, आत्म-चिन्तन में गहराई आती हैं। अतः पूर्ण ब्रह्मचर्य के परिपालक साधु को सरस, स्निग्ध आहार नहीं करना चाहिए। संयम के लिए रुक्ष आहार सर्व-श्रेष्ठ है। भगवान महावीर ने ओदनचावल, बोर के चूर्ण एवं कुल्माष आदि का आहार किया था। ___ यह ओदन आदि का आहार भगवान ने आठ महीने तक किया और इसी बीच एक महीने तक निराहार रहे, पानी भी नहीं पिया। इससे उनकी निस्पृह एवं अनासक्त वृत्ति का स्पष्ट परिचय मिलता है। भिक्षाकाल में जैसा भी रूखा-सूखा आहार उपलब्ध हो जाता वैसा . ही वह आहार अनासक्त भाव से लेते थे। अब भगवान के विशिष्ट तप का वर्णन करते हुए सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र