________________ 1871 - 6 - 1 - 5 (190) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन इस प्रकार चारों गति में रहे हुए संसारी जीव विविध प्रकार के कर्मो के विपाक (फल) को पाते हैं... यह बात अब सूत्र के द्वारा हि कहतें हैं... जैसे कि- इस संसार में अनेक प्राणी हैं, उनमें से कितनेक जीवों कों आंखे नहि है; वे द्रव्य से अंध-विकल है और जिन्हें सत् एवं असत् का विवेक नहि है, वे भाव-अंध हैं... नरकादि गतिओं में सूर्य के प्रकाश का अभाव स्वरूप जहां कहिं अंधकार है वह द्रव्य अंधकार तथा मिथ्यात्व अविरति प्रमाद कषाय आदि कर्मों के विपाक से होनेवाला जो अविवेक, वह भाव-अंधकार है... ऐसा यहां सूत्र में कहा गया है... तथा विभिन्न कर्मो के उदय से कुष्ठ आदि रोगों जीव के शरीर में उत्पन्न होते हैं... या तो अशुभकर्मोदय से जीव एकेन्द्रियादि अपर्याप्तकादि अवस्थाएं एक बार या अनेक बार प्राप्त करके उच्च याने तीव्र और अवच याने मंद स्पर्शादि के दुःखों का अनुभव इस संसार / ' में बार-बार करता है... इत्यादि यह बात तीर्थंकर, गणधर आदि ने स्पष्ट रूप से कही है... जैसे कि- इस संसार में कइ जीव-प्राणी भाषालब्धि पाये हुए बेइंद्रिय आदि हैं तथा कटुतिक्त-कषाय अम्ल एवं मधुरादि रस को जाननेवाले रसग याने संज्ञी पंचेद्रिय हैं, इत्यादि यह सब संसारी जीवों के कर्मों का विपाक याने फल है... तथा कितनेक जीव जल स्वरूप एकेंद्रिय हैं, और वे भी अपर्याप्त एवं पर्याप्तक भेद से दो प्रकार के हैं... तथा जल में रहनेवाले पोरा, छेदनक, लोड्डणक मच्छलीयां कच्छुए आदि अनेक प्रकार के जलचर जीव हैं... तथा कितनेक स्थलचर-सर्प आदि भी जल का आश्रय लेते हैं... तथा कितनेक खेचर-पक्षी भी जल में रहतें हैं, वे जलचर जीवों के भक्षण के द्वारा शरीर को धारण करतें हैं और कितनेक पक्षी आकाश में गमन करतें हैं, इत्यादि सभी प्राणी अन्य जीवों को आहार आदि के लिये या मत्सरादि के कारणों से कष्ट पहुंचाते हैं; अतः हे श्रमण ! आप देखीये कि- संपूर्ण चौदह राजलोक प्रमाण इस विश्व में सभी प्राणीओं को विविध प्रकार के दुःख क्लेशादि के विपाक स्वरूप महाभय अब कर्मों के विपाक से प्राणीओं को जो महाभय है; उसका स्वरूप सूत्रकार महर्षि आगे के सूत्रसे कहेंगे... v सूत्रसार : ज्ञान आत्मा का गुण है। प्रत्येक आत्मा में अनन्त ज्ञान की सत्ता स्थित है। परन्तु ज्ञानावरण कर्म के कारण बहुत-सी आत्माओं का ज्ञान प्रच्छन्न रहता है। ज्ञानावरण कर्म का जितना क्षयोपशम होता है, उतना ही ज्ञान आत्मा में प्रकट होता रहता है। जब आत्मा पूर्ण रूप से ज्ञानावरणीय कर्म का क्षय करती है, तब उसे पूर्ण ज्ञान-केवलज्ञान प्राप्त होता है। फिर उससे संसार का कोई भी पदार्थ प्रच्छन्न नहीं रहता। वह महापुरुष अपने ज्ञान से संसार