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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका #1-8- 7 - 1(238) // 171 IV टीका-अनुवाद : प्रतिमा याने अभिग्रह ग्रहण कीया हुआ साधु जब अभिग्रह विशेष से अवस्त्रवाला होकर हि संयमानुष्ठान में रहा हो, तब उस साधु को ऐसा विचार आवे कि- मैं तृणस्पर्श को सहन कर शकता हुं... क्योंकि- मैं धृति एवं संघयण बल से संपन्न हुं तथा मैंने वैराग्य भावना से अंत:करण को भावित कीया है, तथा आगमों के अध्ययन से नारक एवं तिर्यंच गति के दु:खों की वेदना को प्रत्यक्ष की है, अतः मोक्ष के लिये पुरुषार्थ करनेवाले मुझे यह तृणस्पर्श कोइ कष्टदायक नहि लगता... इसी प्रकार शीतस्पर्श याने ठंडी, तथा उष्णस्पर्श याने गरमीधूप-ताप... तथा दंशमसक याने मच्छर आदि जंतुओं के डंख को भी सहन कर शकता हुं... अत: इनमें से कोई एक या अनेक तथा अनुकूल या प्रतिकूल ऐसे इन विरूपादि स्वरूपवाले स्पर्शों के कष्टों को अर्थात् परीषहों को मैं सहन कर शकुंगा... किंतु लज्जा के कारण से गुह्य याने गुप्त अंगों को वस्त्र से ढांकने का त्याग नहि कर शकता... इस परिस्थिति में ऐसे लज्जागुणवाले साधु को कटिबंधन याने चोलपटक पहनना कल्पता है... किंतु वह चोलपटक लंबाइ में कटि प्रमाण हो एवं विस्तार (पहोलाइ) में एक हाथ और चार अंगुल प्रमाण एक हि वस्त्र हो... यदि यह लज्जा-कारण न हो तब अचेल याने वस्त्र रहित हि संयमानुष्ठान में उद्यमशील रहे... और अवस्त्र की स्थिति में हि शीत आदि स्पर्शों को अर्थात् परीषहों को सहन करे... v सूत्रसार : ___ प्रस्तुत सूत्र में अचेलक मुनि का वर्णन किया गया है। इसमें बताया गया है किजो मुनि शीत आदि परीषहों को सहने में तथा लज्जा को जीतने में समर्थ है, वह वस्त्र का सर्वथा त्याग करदे। वह मुनि केवल मुखवस्त्रिका एवं रजोहरण के अतिरिक्त कोई वस्त्र न रखे। परन्तु, जो मुनि लज्जा को जीतने में सक्षम नहीं है, वह कटिबन्ध अर्थात् चोल पट्टक (धोती के स्थान में पहनने का अधोवस्त्र) रखे और गांव या शहर में भिक्षा आदि के लिए जाते समय उसका उपयोग करे। परन्तु, जंगल एवं एकान्त स्थान में निर्वस्त्र होकर साधना करे। .. यह हम चौथे उद्देशक में स्पष्ट कर चुके हैं कि- साधना की सफलता अर्थात् मुक्ति नग्नता में हैं। किंतु वह नग्नता शरीर मात्र की नहीं, परंतु आत्मा की होनी चाहिए अर्थात् आत्मप्रदेशों के उपर रहे हुए कर्मो का सर्वथा अभाव... जब आत्मा कर्म आवरण से सर्वथा अनावृत्त हो जाएगी तभी मुक्ति प्राप्त होगी और उसके लिए आवश्यक है राग-द्वेष के हेतुभूत कषायों का क्षय करना। यह क्रिया वस्त्र रहित भी की जा सकती है और वस्त्र सहित भी। मर्यादित वस्त्र रखते हुए भी जो साधु समभाव के द्वारा राग-द्वेष पर विजय पाने में संलग्न है, उसकी साधना सफलता की ओर है और यदि कोई साधु वस्त्र का त्याग करके भी राग
SR No.004437
Book TitleAcharang Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages368
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size8 MB
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