________________ 170 ॥१-८-७-१(२38)卐 श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन - श्रुतस्कंध - 1 अध्ययन - 8 उद्देशक - 7 # पादपोपगमन-मरणम् // आठवे अध्ययन का छठ्ठा उद्देशक कहा, अब सातवे उद्देशक की व्याख्या का प्रारंभ . करतें हैं... इनका परस्पर अभिसंबंध इस प्रकार है कि- छठे उद्देशक में कहा था कि- एकत्व भावना से भावित एवं धृति तथा संघयण आदि बलवाले साधु को चाहिये कि- इंगितमरण का स्वीकार करे... और अब इस सातवे उद्देशक में वह हि एकत्वभावना प्रतिमावहन के द्वारा निष्पादन (बनानी) करनी चाहिये... इस हेतु से प्रतिमाओं का स्वरूप कहा जाएंगा... तथा . विशिष्ट शक्ति-सामर्थ्य संघयणवाले साधु को चाहिये कि- वे पादपोपगमन अनशन भी स्वीकारे... अतः इस संबंध से आये हुए सातवे उद्देशक का यह प्रथम सूत्र है... I सूत्र // 1 // // 236 // 1-8-7-1 जे भिक्खू अचेले परिवुसिए तस्स णं भिक्खुस्स एवं भवइ-चाएमि अहं तणफासं अहियासित्तए, सीयफासं अहियासित्तए, तेउफासं अहियासित्तए दंसमसगफासं अहियासित्तए, एगयरे अण्णतरे विरूवरूवे फासे अहियासित्तए, हिरिपडिच्छायणं चऽहं नो संचाएमि अहियासित्तए, एवं से कप्पइ कडिबंधणं धारित्तए // 236 // II संस्कृत-छाया : यः भिक्षुः अचेलः पर्युषितः, तस्य भिक्षोः एवं भवति- शक्नोमि अहं तृण स्पर्श अधिसोढुं, शीतस्पर्श अधिसोढुं, तेजः स्पर्श अधिसोढुं, दंशमशकस्पर्श अधिसोढुं, एकतरान् अन्यतरान् विरूपरूपान् स्पर्शान् अधिसोढुं, ह्रीप्रच्छादनं च अहं न (संत्यजामि) शक्नोमि अधिसोढुम्। एवं तस्य कल्पते कटिबन्धनं धारयितुम् // 236 // III सूत्रार्थ : जो प्रतिमासंपन्न अचेलक भिक्षु संयम में अवस्थित है और जिसका यह अभिप्राय होता है कि- में तृणस्पर्श, शीतस्पर्श, उष्णस्पर्श, डांस-मच्छरादि के स्पर्श, एक जाति के स्पर्श, अन्य जाति के स्पर्श और नाना प्रकार के अनुकूल या प्रतिकूल स्पर्शों को तो सहन कर सकता हूं किन्तु मैं सर्वथा नग्न हो कर लज्जा को जीतने में असमर्थ हूं। ऐसी स्थिति में उस मुनि को कटिबन्धन चोलपट्टा रखना कल्पता है।