________________ 172 // 1-8-7 - 2 (239) म श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन द्वेष के विषम भाव में घूमता है तो उसकी साधना मोक्ष-मुक्ति की ओर ले जाने में समर्थ नहीं है। अतः असाधुता वस्त्र के होने में नहीं किंतु कषायों के होने में हि है, तथा ममता में असाधुता है, राग-द्वेष में भी असाधुता हि है। इन विकारों से युक्त वस्त्र युक्त एवं वस्त्र रहित कोई भी साधक वास्तव में साधुता से दूर है। ___ इससे स्पष्ट होता है कि- वस्त्र केवल लज्जा एवं शीत निवारणार्थ है। इससे संयम साधना में कोई बाधकता नहीं है। क्योंकि- परिग्रह पदार्थ में नहीं, ममता में हैं। आगमों में मूर्छा को हि परिग्रह माना है। यदि शरीर पर आसक्ति है, तो वहां भी परिग्रह का दोष लगेगा और यदि शरीर पर एवं वस्त्रों पर तथा अन्य उपकरणों पर ममत्व भाव नहीं है, तो परिग्रह का दोष नहीं लगेगा। इससे यह सिद्ध होता है कि- साधुत्व अनासक्त भाव में हि हैं, रागद्वेष से रहित होने की साधना हि साधुत्व हैं। - इसी बात को और स्पष्ट करते हुए सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहते हैं... I सूत्र // 2 // // 237 // 1-8-7-2 अदुवा तत्थ परक्कमंतं भुज्जो अचेलं तणफासा फुसंति सीयफासा फुसंति तेउफासा फुसंति दंसमसकफासा फुसंति, एगयरे अण्णयरे विरूवरूवे फासे अहियासेइ, अचेले लाघवियं आगममाणे जाव समभिजाणिया // 237 // II संस्कृत-छाया : अथवा तत्र पराक्रममाणं भूयः अचेलं तृणस्पर्शाः स्पृशन्ति शीतस्पर्शाः स्पृशन्ति तेजःस्पर्शाः स्पृशन्ति, दंशमशकस्पर्शाः स्पृशन्ति, एकतरान् अन्यतरान् विरूपरूपान् स्पर्शान् अधिसहते, अचेल: लाघवं आगमयन् यावत् समभिजानीयात् // 237 // III सूत्रार्थ : यदि मुनि लज्जा को न जीत सके तो वस्त्र धारण करले और यदि वह लज्जा को जीत सकता है तो अचेलकता में पराक्रम करे। जो मुनि अचेलक अवस्था में तृणों के स्पर्श, शीत के स्पर्श, उष्ण के स्पर्श, डांस-मच्छरादि के स्पर्श एक जाति के या अन्य कोई भी प्रकार के स्पर्शों के स्पर्शित होने पर उन्हें समभाव से सहन करता है। वह कर्मक्षय के कारणों (संवरभाव) का आदर करनेवाला ज्ञाता मुनि हि सम्यग् दर्शन एवं समभाव का परिज्ञाता है... IV टीका-अनुवाद : वह प्रतिमा याने अभिग्रहवाला साधु लज्जा आदि कारण होने पर वस्त्र को धारण