________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका ॐ१-६-२-४ (197) 41 अपनी संयम-साधना का पूरी निष्ठा के साथ पालन करें। वह अपने संयम पथ पर दृढ़ता से चलता रहे और वीतराग द्वारा उपदिष्ट धर्म एवं आज्ञा का सम्यक् प्रकार से पालन करे। वह साधु यह विचार करे कि- इस विश्व में धर्म के सिवाय अन्य कोई भी पदार्थ अक्षय नहीं है। धर्म ही कर्म मल को दूर करके आत्मा को शुद्ध करने वाला है। अतः हिंसा आदि समस्त दोषों का त्याग करके जीवन निर्वाह के लिए निर्दोष आहार, वस्त्र-पात्र आदि स्वीकार करता हुआ साधु-श्रमण शुद्ध संयम का पालन करे। तथा-कदापि, तीर्थंकर भगवान की आज्ञा से विपरीत आचरण न करे। इस तरह संयम-साधना के काल समय में आने वाले अनुकूल एवं प्रतिकूल परीषहों को समभाव पूर्वक सहन करे। यदि कोई दुष्ट व्यक्ति साधु पर प्रहार भी करे तब भी वह साधु उसके प्रति द्वेष न करे, मन में भी घृणा एवं नफरत का भाव न रखे। यदि कभी श्मशान आदि शून्य स्थानों में कार्योत्सर्ग-ध्यान लगा रखा हो और उस समय कोई हिंसक पशु, मनुष्य या देव कष्ट दे, तब भी अपने धर्मध्यान आत्म चिन्तन का त्याग न करे और उनके प्रति क्रूर भाव भी न लाए। यदि कोई हिंसक पशु या मनुष्य देव आदि साधु के शरीर का भी नाश करता हो, तब भी उसे बुरा-भला न कहकर, खंधक ऋषि की तरह उस वेदना को यह समझकर समभाव पूर्वक सहन,करें कि- यह शरीर विनश्वर है और मेरी आत्मा अविनाशी है। इस शरीर के नाश होने पर भी आत्मा का अस्तित्व समाप्त नहीं होता। इस प्रकार अनित्य एवं अशरण भावना के द्वारा अपने शरीर पर से ध्यान हटाकर आत्म चिन्तन को दृढ बनाने का प्रयत्न करे। इस तरह समभाव पूर्वक उपसर्ग एवं परीषहों को सहन करने वाला साधक राग-द्वेष पर विजय प्राप्त करके शीघ्र ही वीतराग पद को प्राप्त करके सिद्ध-बुद्ध एवं मुक्त बन जाता है। . “त्तिबेमि" की व्याख्या पूर्ववत् समझें। // इति षष्ठाध्ययने द्वितीयः उद्देशकः समाप्तः // 卐卐卐 : प्रशस्ति : मालव (मध्य प्रदेश) प्रांतके सिद्धाचल तीर्थ तुल्य शत्रुजयावतार श्री मोहनखेडा तीर्थमंडन श्री ऋषभदेव जिनेश्वर के सांनिध्यमें एवं श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरिजी, श्रीमद् यतीन्द्रसूरिजी, एवं श्री विद्याचंद्रसूरिजी के समाधि मंदिर की शीतल छत्र छायामें शासननायक चौबीसवे तीर्थंकर परमात्मा श्री वर्धमान स्वामीजी की पाट-परंपरामें सौधर्म बृहत् तपागच्छ संस्थापक अभिधान राजेन्द्र कोष निर्माता भट्टारकाचार्य श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी म. के शिष्यरत्न विद्वद्वरेण्य व्याख्यान वाचस्पति अभिधान राजेन्द्रकोषके संपादक श्रीमद् विजय