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________________ 238 // 1- 9 - 1 - 7 (271) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन IV टीका-अनुवाद : कभी गृहस्थलोग एवं अन्यतीर्थिक साधुओं से मिश्रित वसति में श्रमण भगवान् महावीर स्वामीजी कायोत्सर्ग ध्यान करते हैं, तब कभी कोइ स्त्रीजन कामराग से कामक्रीडा के लिये प्रार्थना करे तब परमात्मा यह सोचते हैं कि- यह स्त्रीजन शुभमार्ग में अर्गला के समान विघातक हैं, इत्यादि सोचकर परमात्मा ज्ञ परिज्ञा से जानकर प्रत्याख्यान परिज्ञा से उन स्त्रीजनों की प्रार्थना का परिहार करते हुए कामविकार का सेवन नहिं करतें... अर्थात् मैथुनक्रीडा नहिं करतें... तथा कभी शून्य वसति में ठहरे हो, तब भी कामविकारों के भाव का त्याग कर के परमात्मा स्वयं अपने आत्मा से हि अपनी आत्मा को वैराग्यमार्ग में जोडकर धर्मध्यान एवं शुक्लध्यान का आलंबन लेते हैं... V सूत्रसार : यह हम देख चुके हैं कि- भगवान महावीर सदा-सर्वदा आत्म-चिन्तन में संलग्न रहते थे। वे प्रायः गांव के बाहर या जंगल में ही ठहरते थे। फिर भी इधर-उधर से गुजरते समय उनके रूप-सौंदर्य को देखकर कुछ कामातुर स्त्रियां उनके पास पहुंचकर भोग-भोगने की इच्छा प्रकट करती थी। वे अनेक तरह के हाव-भाव प्रदर्शित करके उन्हें अपनी ओर आकर्षित करने का प्रयत्न करती थी। परन्तु भगवान उस ओर ध्यान ही नहीं देते थे। क्योंकि- वे विषयवासना के विषाक्त परिणामों से परिचित थे। वे जानते थे कि- ये भोग ऊपर से मधुर प्रतीत होते हैं, परन्तु इनका परिणाम बहुत भयावना होता है। जैसे किंपाक फल देखने में सुन्दर लगता है, उसकी सुवास भी बडी सुहावनी होती है, उसका स्वाद भी मधुर होता है और उसका उपयोग करने वाले व्यक्ति को वह बडा प्रिय लगता है। परन्तु, खाने के बाद जब उसका परिणमन होता है. तब मनुष्य को प्राणांत कष्ट होता है। इस तरह रूप आदि में सुन्दर प्रतीत होने वाला वह फल परिणाम की दृष्टि से भयंकर है, उसी प्रकार काम-भोग बाहर से मनोज्ञ प्रतीत होने पर भी परिणाम की दृष्टि से दुःखद ही हैं। वे अनेक रोगों के जन्मदाता है, शारीरिक शक्ति का ह्रास करने वाले हैं और आत्मा को संसार में परिभ्रमण कराने वाले हैं। इसलिए भगवान ने न तो स्त्रीजन की ओर आंख उठाकर देखा और न उनकी बातों पर ही ध्यान दिया। वे सदा-सर्वदा समभाव पूर्वक अपने आत्म-चिन्तन में संलग्न रहते थे। इसी विषय को और अधिक स्पष्ट करते हुए सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहते हैं... सूत्र // 7 // // 271 // 1-9-1-7 जे केइमे अगारत्था, मीसीभावं पहाय से झाइ। पुट्ठोवि नाभिभासिंसु गच्छइ नाइवत्तइ अंजू // 271 //
SR No.004437
Book TitleAcharang Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages368
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size8 MB
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