________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1-9-1-7(271) 239 II संस्कृत-छाया : ये केचन इमे अगारस्था मिश्रीभावं प्रहाय स ध्यायति / पृष्टोऽपि नाभिभाषते, गच्छति नातिवर्तते ऋजुः // 271 // III सूत्रार्थ : - गृहस्थों से मिश्रित स्थान प्राप्त होने पर भी भगवान मिश्रभाव को छोडकर धर्मध्यान में ही रहते थे। गृहस्थों के पूछने या न पूछने पर भी वे नहीं बोलते थे। अपने कार्य की सिद्धि के लिए गमन करते थे। और किसी के कहने पर भी मोक्षमार्ग या आत्मचिन्तन का त्याग नहीं करते थे। अथवा ऋजु परिणामी भगवान संयम मार्ग में विचरते रहते थे। IV टीका-अनुवाद : अगार याने घर... घर में रहनेवाले गृहस्थों से मिश्रित वसति में जब कभी ठहरे हुए हो, तब परमात्मा द्रव्य एवं भाव से मिश्रभाव का त्याग कर के मात्र एक धर्मध्यान में हि लीन होते हैं... तथा कोइ निमित्त से गृहस्थों के पुछने पर या बिना पुछे हि परमात्मा कुछ भी नहि बोलतें... किंतु सदा मौनभाव में रहते हैं, और अपने कर्तव्यानुष्ठान के अनुसार यथाकाल विहार करते हैं... यहां सारांश यह है कि- परमात्मा संयम स्वरूप मोक्षमार्ग में अविचलित हि रहतें हैं... कभी भी कहिं पापानुष्ठान में अनुमति नहि देतें... किंतु मौन हि रहतें V. सूत्रसार : .. भगवान महावीर प्रायः जंगल में या गांव के बाहर शून्य स्थानों में ठहरते थे। कभी वे परिस्थितिवश गृहस्थों से युक्त स्थान में अथवा शहर या गांव के बीच भी ठहरते थे। परन्तु; ऐसे स्थानों में भी वे उनके संपर्क से दूर रहते थे। वे अपने आत्मचिन्तन में इतने संलग्न थे कि- उनका मन गृहस्थों की ओर जाता ही नही था। यदि कोई व्यक्ति उन्हें बुलाने का प्रयत्न करता, उनसे कुछ पूछना चाहता तो भी वे नहीं बोलते थे। न उनकी बातों को सुनते थे और न उसका कोई उत्तर भी देते थे। इसका यह तात्पर्य नहीं कि- गृहस्थों के शब्द उनके कर्ण-कुहरों में प्रविष्ट ही नहीं होते थे। शब्द तो उनके कानों में पड़ते थे, परन्तु, उन्हें ग्रहण करने वाला मन या चित्तवृत्ति आत्मचिन्तन में लगी हुई थी, इसलिए उन्हें उनकी अनुभूति ही नहीं होती थी। क्योंकि- मन जब तक किसी विषय को ग्रहण नहीं करता तब तक केवल इन्द्रिया उन विषयों में व्याकुल नहि हो सकतीं। भरत चक्रवर्ती के समय की बात है कि- सुनार के मन में स्थित संदेह- "भरत चक्रवर्ती