________________ 216 // 1 - 9 - 0 -0 // श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन = वह अधिकार चौथे उद्देशक में हैं... इन चारों उद्देशक में सामान्य से तपश्चर्या का हि अधिकार अनुगत रहा हुआ है... निक्षेप के तीन प्रकार हैं, 1. ओघनिष्पन्न, 2. नामनिष्पन्न, और 3. सुत्रालापकनिष्पन्ननिक्षेप... इन में से ओघनिष्पन्न निक्षेप में अध्ययन... और नाम निष्पन्ननिक्षेप में उपधानश्रुत... यह नाम दो पद का है, 1. उपधान, 2. श्रुत... अब उपधान एवं श्रुत पद का यथाक्रम से निक्षेप करना चहिये, इस न्याय से प्रथम उपधान पद के निक्षेप, नियुक्तिकार महर्षि चतुर्दश पूर्वधर श्री भद्रबाहुस्वामीजी नियुक्ति की गाथाओं से कहते हैं... नि. 281 नाम उपधान, स्थापना उपधान, द्रव्य उपधान, एवं भाव उपधान... यह उपधान पद के चार निक्षिप हैं... श्रुत पद के भी इसी प्रकार चार निक्षेप होते हैं... नाम श्रुत, स्थापना श्रुत, द्रव्य श्रुत एवं भाव श्रुत... इत्यादि... श्रुत पद के चार निक्षेप में नाम एवं स्थापना सुगम है... तथा अनुपयोगवाले साधु का श्रुत, वह द्रव्य श्रुत, अथवा द्रव्य के लिये जिस श्रुतज्ञान का उपयोग कीया जाय वह द्रव्य श्रुत... जैसे कि- कुप्रावचनिकों का श्रुतज्ञान... तथा जिनशासन में मान्य ऐसे अंगप्रविष्ट श्रुतज्ञान तथा अंगबाह्य श्रुतज्ञान विषयक उपयोग, वह भावश्रुत.. अब उपधान पद के निक्षेपों में नाम एवं स्थापना सुगम हैं, अत: द्रव्य उपधान निक्षेप का स्वरूप नियुक्तिकार महर्षि स्वयं कहते हैं... नि. 282 उपधान पद में उप याने समीप में और धान याने धीयते इति धानम् व्यवस्थापनम्... अर्थात् आत्मा को शास्त्राज्ञा के माध्यम से आत्मा के समीप स्थापित करना, वह उपधान... द्रव्य उपधान याने शय्या आदि में सुख से शयन हो, इस लिये मस्तक के नीचे जो ओशीका रखा जाता है वह द्रव्य उपधान... द्रव्यभूतं उपधानम् = द्रव्योपधानम्... भावस्य उपधानम् = भावोपधानम्... चारित्र परिणाम के भावों को आलंबन देनेवाले ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार एवं बाह्य तथा अभ्यंतर तपश्चर्या स्वरूप तपाचार... यहां / प्रधानता से भाव उपधान स्वरूप ज्ञान, दर्शन, चारित्र एवं तपश्चर्या का हि अधिकार है... यहां प्रश्न यह होगा कि- चारित्र के उपष्टंभ ऐसे तपश्चर्या को भाव-उपधान क्यों कहा