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________________ श्री राजेन्द सर्वे धनी आहोरी - हिन्दी-टीका ॐ१-९ - 3 -14 (317) 301 I सूत्र // 14 // // 317 // 1-9-3-14 एस विहि अणुक्कतो, माहणेण मइमया। बहुसो अपडिन्नेणं, भगवया एवं रीयंति // 317 // तिबेमि एष विधिः अनुक्रान्तः, माहनेन मतिमता। बहुशः अप्रतिज्ञेन, भगवता एवं रीयंते // 317 // इति ब्रवीमि III सूत्रार्थ : प्रतिज्ञा से रहित, ऐश्वर्य युक्त, परम मेधावी भगवान महावीर ने अनेक बार उपरोक्त उपशम विधि का आचरण किया, उनके द्वारा आचरित एवं उपदिष्ट इस प्रशमभाव विधि का अन्य साधक भी इसी प्रकार आचरण करते हैं। ऐसा मैं तुम्हें कहता हूं। IV टीका-अनुवाद : इस तीसरे उद्देशक का उपसंहार करते हुए ग्रंथकार महर्षि कहते हैं कि- परीषहादि के प्रसंग में कही गइ विधि के परिपालन में पराक्रम-पुरुषार्थ करनेवाले श्रमण भगवान् महावीर स्वामीजी को देखकर अन्य साधुओं को यह समझना हैं, कि- परीषहादि के प्रसंग में हमारा धर्मध्यान अखंड रहना चाहिये... इति शब्द अधिकार की समाप्ति का सूचक है... और ब्रवीमि पद का अर्थ पूर्ववत्... V. सूत्रसार : प्रस्तुत गाथा का विवेचन प्रथम उद्देशक की अन्तिम गाथा में कर चुके हैं। 'त्तिबेमि' का विवेचन पूर्ववत् समझें। // इति नवमाध्ययने तृतीयः उद्देशकः समाप्तः // 卐'卐 : प्रशस्ति : . मालव (मध्य प्रदेश) प्रांतके सिद्धाचल तीर्थ तुल्य श@जयावतार श्री मोहनखेडा तीर्थमंडन श्री ऋषभदेव जिनेश्वर के सानिध्यमें एवं श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरिजी, श्रीमद् यतीन्द्रसूरिजी, एवं श्री विद्याचंद्रसूरिजी के समाधि मंदिर की शीतल छत्र छायामें शासननायक चौबीसवे तीर्थंकर परमात्मा श्री वर्धमान स्वामीजी की पाट-परंपरामें सौधर्म बृहत् तपागच्छ
SR No.004437
Book TitleAcharang Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages368
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size8 MB
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