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________________ 300 // 1-9-3-13 (316); श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन - II संस्कृत-छाया : शूरः संग्रामशिरसि वा संवृतः तत्र स महावीरः। प्रतिसेवमानः च परुषान्, अचल: भगवान् रीयते स्म // 316 // III सूत्रार्थ : जैसे कवच आदि से संवृत, शूरवीर पुरुष संग्राम में चारों ओर से शस्त्रादि का प्रहार होने पर भी आगे बढ़ता चला जाता है उसी प्रकार श्रमण भगवान महावीर उस देश में कठिन से कठिन परीवहों के होने पर भी धैर्य रूप कवच से संवृत होकर मेरु पर्वत की तरह स्थिर चित्त होकर संयम मार्ग पर गतिशील थे। IV टीका-अनुवाद : जिस प्रकार रण-संग्राम के अग्रभाग में रहा हुआ शूरवीर सैनिक शत्रुओं के कुंत (भाले) आदि शस्त्रों के घाव में भी अक्षुब्ध रहता है, पीछे हट नहि करता, क्योंकि- उस सुभट ने बख्तर पहना हुआ होता है... इसी प्रकार महावीर स्वामीजी ने भी धर्मध्यान स्वरूप बख्तर पहना हुआ था, इस कारण से प्रभुजी भी उन परीषह एवं उपसर्गों के समय पीछे हट नहि करतें थे, किंतु धर्मध्यान में आगे हि आगे बढते रहते थे... अर्थात् मेरु के समान अचल ऐसे श्री महावीर स्वामीजी ज्ञान, दर्शन एवं चारित्र स्वरूप मोक्षमार्ग में पुरुषार्थ करते हुए आगे हि आगे बढते रहते थे... v सूत्रसार : प्रस्तुत गाथा में भगवान महावीर की एक वीर योद्धा से तुलन की गई है। इस में बताया गया है कि- जैसे एक वीर योद्धा कवच से अपने शरीर को आवृत्त करके निर्भयता के साथ युद्ध भूमि में प्रविष्ट हो जाता है। उसी प्रकार संवर के कवच से संवृत्त भगवान महावीर परीषहों से नहीं घबराते हुए लाढ देश में विचरे। वहां के निवासियों ने उन्हें अनेक तरह के कष्ट दिए, फिर भी वे साधना पथ से विचलित नहीं हुए। किंतु ज्ञान, दर्शन एवं चारित्र की साधना में संलग्न रहे। इससे यह स्पष्ट होता है कि- साधक को परीषहों से घबराए बिना कर्म शत्रुओं को परास्त करने के लिए रत्नत्रय की साधना में संलग्न रहना चाहिए। साधना करते हुए यदि कष्ट उपस्थित हों तो उन्हें समभाव पूर्वक सहन करना चाहिए। अब प्रस्तुत उद्देशक का उपसंहार करते हुए सूत्रकार महर्षि अंतिम सूत्र कहते हैं...
SR No.004437
Book TitleAcharang Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages368
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size8 MB
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