________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1 - 9 - 3 - 13 (316) 299 - यहां सारांश यह है कि- श्रमण भगवान् महावीरस्वामी जी जो भी परीषह एवं उपसर्ग आते थे, उन्हें समता भाव से सहन करतें थे... उन कष्ट-पीडा की प्रभुजी चिकित्सा नहि करतें थे, किंतु धीरता के साथ उन कष्ट-पीडा को धर्मध्यान में रहकर सहन करतें थे... V सूत्रसार : प्रस्तुत उभय गाथाओं में भगवान की सहनशीलता का वर्णन किया गया है। इनमें बताया गया है कि- जहां भगवान ध्यानस्थ खडे थे वहां वे अनार्य लोग पहुंच जाते और उनके शरीर का मांस काट लेते उन्हें पकड कर अनेक तरह की यातनाएं-कष्ट देते। उन पर धूलपत्थर आदि फेंकते। फिर भी उनके चिन्तन में बिल्कुल अन्तर नहीं आता। उनके चिन्तन का प्रवाह उसी रूप में प्रवहमान रहता था। इससे यह स्पष्ट होता है कि- मुमुक्षु पुरुष को कैसी कैसी कठिन परीक्षा में उतरना पडता है। भगवान महावीर कठोर से कठोर परीक्षा में सफल रहे। वे सदा परीषहों पर विजय प्राप्त करते हुए आत्म विकास की ओर बढते रहे। इसके लिए प्रस्तुत गाथा में उनके लिए 'दुक्खसहे' और 'अपडिन्ने' दो विशेषण दिए हैं। इसमें पहले विशेषण का अर्थ दुःख पर विजय पाने वाले और दूसरे का अर्थ है-प्रतिज्ञा रहित अर्थात् भौतिक अनुकूलता की कामना से रहित। ___ इससे स्पष्ट होता है कि- भगवान महावीर समभाव पूर्वक परीषहों को सहन करते थे और उन्होंने कष्टों का कभी भी प्रतिकार नहीं किया। यह नितान्त सत्य है कि- आत्मा स्वयं ही कर्म का बन्ध करता है और स्वयं ही उन्हें तोड सकता है। दुनिया में व्यक्ति जो भी दुःख-कष्ट पाता है, वे उसके स्वयं कृत कर्म के ही फल हैं। यह समझकर भगवान महावीर उनसे घबराए नहीं, किंतु समभाव पूर्वक सहकर भगवान महावीर उन कर्मों को नष्ट करने में संलग्न रहे। जिससे वे कर्म फिर से उन्हें संतप्त न कर सके। अतः भगवान महावीर सदा कर्मों का नाश करने के लिए संयम एवं तप में संलग्न रहे। संयम-साधना से वे अभिनव कर्मों के बन्ध को रोकने का प्रयत्न करते रहे और तप से पूर्व कर्मों को क्षय करते रहे। इस तरह श्रमण भगवान् महावीरस्वामीजी निष्कर्म बनने का प्रयत्न करते रहे। उनकी इस महासाधना का उल्लेख करते हुए सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहते हैं... I सूत्र // 13 // // 316 // 1-9-3-13 सूरो संगाम सीसे वा संवुडे तत्थ से महावीरे। पडिसेवमाणे फरुसाई, अचले भगवं रीयित्था // 316 //