________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1 - 9 - 1 - 10 (274) 245 * इस विषय में ऐसा सुना जाता है कि- श्रमण भगवान् श्री महावीरस्वामीजी जब त्रिशला माता की कुक्षि में थे तब मां के आक्रंदन को देखकर प्रतिज्ञा की थी, कि- मात-पिताजी के जीवितकाल में प्रव्रज्या ग्रहण नहि करूंगा... इत्यादि... अब जब पिताजी सिद्धार्थ महाराज एवं माताजी त्रिशलादेवी जब स्वर्गलोक पधारे तब महावीरस्वामीजी की प्रतिज्ञा पूर्ण हो चूकी थी, और प्रव्रज्या ग्रहण करने की अभिलाषा व्यक्ति की थी, तब ज्ञातिजन एवं विशेष प्रकार से वडिलबंधु नंदिनवर्धनजी ने कहा कि- हे वर्धमान ! आप अभी प्रव्रज्या की बात कर के हमे अधिक दु:खी न करें, क्योंकि- अभी मात-पिताजी के विरह की अपार वेदना हमें हो रही है... इस परिस्थिति में यदि आप प्रव्रज्या की बात करोगे तब तो यह क्षते क्षारम् के न्याय से लगे हुए घाव में नमक डालने के समान हमारी वेदना और अधिक बढ़ जाएगी... ____ उस समय श्रमण परमात्मा महावीरस्वामीजी ने भी अवधिज्ञान के उपयोग से जाना कि- इस परिस्थिति में यदि मैं प्रव्रज्या ग्रहण करता हुं, तब अनेक ज्ञातिजन एवं बंधुवर्ग विक्षिप्त चित्तवाले होकर प्राण त्याग देंगे... इत्यादि देखकर परमात्मा ने बंधुजनों से कहा कि- मुझे अब यहां कितना समय रहना चाहिये ? तब बंधुजनों ने कहा कि- आप दो वर्ष तक यहां हि रहीयेगा... तब तक हमारा मात-पिताजी के विरह संबंधित शोक दूर हो जाएगा... यह बात सनकर भट्टारक श्री महावीर स्वामीजीने बंधवर्ग की बात का स्वीकार कीया. और कहा कि- आज से मैं आहारादि क्रिया स्वेच्छानुसार करुंगा... आप बंधुवर्ग में से कोइ भी, मुझे आहारादि कार्यों में मेरी इच्छा से प्रतिकूल आग्रह नहि करेंगे... बंधुवर्ग ने भी महावीरस्वामीजी की यह बात मान ली... उन्हों ने यह सोचा कि- किसी भी प्रकार से महावीरस्वामजी घर में तो रहेंगे हि... भले हि वे अपनी इच्छा के अनुसार हि रहे... इत्यादि... V सूत्रसार : - भगवान महावीर के सामने कई तरह के प्रसंग आते थे। वे अब कभी भी शहर या गांव के मध्य में ठहरते तब वहां स्त्री-पुरुषों की पारस्परिक कामोत्तेजक बातें भी होती थीं, परन्तु भगवान उनकी बातों की ओर ध्यान नहीं देते थे। वे विषय-विकार बढ़ाने वाली बातों को सुनकर न तो हर्षित होते थे और विषयों के अभाव का अनुभव करते दुःखित भी नहिं होते थे। वे हर्ष और शोक से सर्वथा रहित होकर आत्म-साधना में संलग्न रहते थे। क्योंकिवे भली-भांति जानते थे कि- विषय-वासना मोह का हि कारण है और मोह समस्त कर्मों में प्रबल है, वह सभी कर्मों का राजा है। उसका नाश करने पर शेष कर्मों का नाश सुगमता से किया जा सकता है। यही कारण है कि- सर्वज्ञता को प्राप्त करने वाले महापुरुष सबसे पहले मोहनीय कर्म का क्षय करते हैं, उसके बाद शेष तीन घातिकर्मों का नाश करते हैं। अत: भगवान महावीर विषय-विकारों को मोह बढ़ाने का कारण समझकर उसमें रस नहीं लेते थे। किंतु वे उस विषय-विकारों के वातावरण में भी अपनी आत्म-साधना में ही संलग्न रहते थे।