________________ 1861 -8-8- 6 (245) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन संलेखना का स्वीकार करता है। अत: उसके लिए यह आवश्यक है कि- पहले वह कषायों का त्याग करे और उसके पश्चात् उपकरण एवं शरीर का भी परित्याग कर दे। कषाय का त्याग करने पर ही आत्मा में समाधि भाव की ज्योति जग सकती है और साधक त्याग के पथ पर आगे हि आगे बढकर सभी कर्मों एवं कर्म के कारणों से निवृत्त हो सकता है। इसलिए साधक को सदा अपने अन्तःकरण को शुद्ध बनाने का प्रयत्न करना चाहिए। शुद्ध हृदय वाला व्यक्ति ही संयम की सम्यक् साधना करके कर्म से मुक्त हो सकता है। इस विषय को और स्पष्ट करते हुए सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहते हैं... सूत्र // 6 // // 245 // 1-8-8-6 जं किंचुवक्कम जाणे आऊखेमस्समप्पणो / तस्सेव अंतरद्धाए खिप्पं सिक्खिज पंडिए // 245 // // संस्कृत-छाया : यं कञ्चन उपक्रमं जानीत, आयुःक्षेमं आत्मनः / तस्यैव अन्तरकाले क्षिप्रं शिक्षेत पण्डितः // 245 // II सूत्रार्थ : यदि मुनि अपनी आयु को क्षेम-समाधि पूर्वक बिताने का उपाय जानता हो तो वह उस उपाय को संलेखना के मध्य में ही ग्रहण करले। अर्थात् अकस्मात् रोग का आक्रमण हो जाए तो वह शीघ्र ही भक्तपरिज्ञा आदि तीनमेंसे कोइ भी एक मरण का स्वीकार करके पंडित मरण को प्राप्त करे। IV टीका-अनुवाद : ___पंडित याने बुद्धिमान साधु अपने आयुष्य = जीवन का सम्यक् परिपालन के लिये जो कोइ भी अच्छा उपक्रम याने उपाय जब भी प्राप्त हो तब उस उपाय का तत्काल अभ्यास करके जीवन की विशुद्धी के लिये उपाय का आदर करे... तथा संलेखन-काल में आधी संलेखना होने पर यदि अकस्मात् शरीर में वात-पित्त आदि का क्षोभ याने उपद्रव हो या मरण के हेतुभूत आतंक = तीव्र वेदना हो तब समाधिमरण की अभिलाषा के साथ उस पीडा के उपशम का उपाय, एषणीय विधि के द्वारा अभ्यंगनादि करे, और आगे की शेष संलेखना विधि पूर्ण करे... किंतु यदि अपने आयुष्य का उपक्रम याने मरण - काल निकट दिखे तब उस संलेखना-काल के बीच हि समाधि भाव में स्थिर होकर विद्वान साधु तत्काल भक्तपरिज्ञादि मरण-अनशन का स्वीकार करे...