________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1 - 8 - 8 -7 (246) 187 V . सूत्रसार : यदि संलेखना के काल में कोई ऐसा रोग उत्पन्न हो जाए कि- संलेखना का काल पूरा होने के पूर्व ही उस रोग से मृत्यु की संभावना हो तो उस समय साधक संलेखना को छोडकर औषध के द्वारा रोग को उपशान्त करके फिर से संलेखना आरम्भ कर दे। यदि कोई व्याधि तेल आदि की मालिश से शान्त हो जाती हो तो वैसा प्रयत्न करे और यदि वह व्याधि शान्त नहीं होती हो किंतु उग्र रूप धारण कर लेने से ऐसा प्रतीत होता हो कि- अब जल्दी ही प्राणान्त होने वाला है, तो साधक भक्तप्रत्याख्यान आदि अनशन स्वीकार करके समाधिमरण को प्राप्त करे। इससे स्पष्ट होता है कि- साधक को आत्महत्या की अनुमति नहीं है अर्थात् जहां तक शरीर चल रहा है और उसमें साधना करने की शक्ति है, तब तक उसे अनशन करने की आज्ञा नहीं है। रोग के उत्पन्न होने पर उसका उपचार करने की अनुमति दी गई है। अनशन उस समय के लिए बताया गया है कि- जब रोग असाध्य बन गया हो एवं उसके ठीक होने की कोई आशा नहीं रही है या उसका शरीर इतना जर्जरित निर्बल हो गया है कि- अब भलीभांति स्वाध्याय आदि साधना नहीं हो रही है। तब अनशन की विधि का विधान कहा गया है... मृत्यु का समय निकट आने पर साधक को क्या करना चाहिए, इसका उल्लेख करते हुए सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहते हैं... / सूत्र // 7 // // 246 // 1-8-8-7 गामे वा अदुवा रण्णे थंडिलं पडिलेहिया / .. अप्पप्पाणं तु विण्णाय तणाई संथरे मुणी // 246 // II संस्कृत-छाया : ग्रामे वा अथवा अरण्ये स्थण्डिलं प्रत्युपेक्ष्य / अल्पप्राणं तु विज्ञाय तृणानि संस्तरेत् मुनिः // 246 // III सूत्रार्थ : ग्राम या जंगल में स्थित संयमशील मुनि संस्तारक का एवं स्थंडिल भूमी का प्रतिलेखन करे और जीव-जन्तु से रहित निर्दोष भूमि को देखकर वहां तृण बिछाए। IV टीका-अनुवाद : संलेखना के द्वारा शुद्ध शरीरवाला साधु मरणकाल निकट आने पर गांव के उपाश्रय