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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 329 % 3D हि वह वस्तु-पदार्थ प्राप्त नहि होता... यह बात आबालगोपाल सभी लोगों को प्रत्यक्ष सिद्ध है, अत: यहां अन्य प्रमाण की भी आवश्यकता नहि है... तथा जन्मांतर के शुभ फल की प्राप्ति को चाहनेवाले मनुष्य को भी तपश्चर्यादि क्रिया अवश्य करनी चाहिये... . जिनेश्वरों के प्रवचन याने शासन में भी यह बात इसी प्रकार हि मानी गई है... जैसे कि- चैत्य, कुल, गण, संघ, आचार्यों के प्रवचन एवं श्रुत इत्यादि सर्वत्र, तपश्चर्या एवं संयमानुष्ठान में उद्यम करनेवाले को हि सफल माना गया है... यहां सारांश यह है कि- तीर्थंकरादि आप्त पुरुषों ने क्रिया के अभाववाले ज्ञान को अफल याने निष्फल कहा है... अन्यत्र भी कहा है कि- यद्यपि किसी मनुष्य ने बहोत सारा श्रुतज्ञान (शास्त्र) पढा है, किंतु यदि वह मनुष्य (साधु) आचार (क्रिया) से रहित है, तब उस साधु को मोक्षपद कैसे प्राप्त होगा ? जैसे कि- अंधे मनुष्य के सामने लाखों-करोडों दीपक जलाएं तब भी क्या वह अंध मनुष्य इष्टार्थ की प्राप्ति कर शकता है ? अर्थात् उसे इष्टार्थ की प्राप्ति नहि होगी... यहां सारांश यह है कि- ज्ञान के साथ क्रिया अवश्य होनी चाहिये... क्रिया के अभाव में ज्ञान सर्वथा निष्फल हि है... यह क्रियानुष्ठान मात्र क्षायोपशमिक ज्ञान से हि श्रेष्ठ है, इतना हि नहि किंतु क्षायिक भाव के ज्ञान से भी क्रियानुष्ठान बढकर श्रेष्ठ है... जैसे कि- तेरहवे गुणस्थानक में जीवाजीवादि सकल पदार्थों के स्वरूप को प्रगट करनेवाला केवलज्ञान प्राप्त होने पर भी शुक्लध्यान के व्युपरतक्रियानिवर्ति स्वरूप चतुर्थ भेद की क्रिया के अभाव में भवोपग्राहि अघातिकर्मों का विच्छेद नहि होता... और जब तक चार अघातिकर्मो का विच्छेद न हो, तब तक आत्मा को मोक्षपद की प्राप्ति नहि होती... इसीलिये हम कहते हैं कि- अकेला ज्ञान श्रेष्ठ नहि है, किंतु क्रिया हि श्रेष्ठ है... क्योंकि- क्रिया से हि इस लोक के एवं परलोक के इष्टार्थ फल की प्राप्ति होती है... अतः क्रिया हि श्रेष्ठ माननी चाहिये... . इति निरपेक्ष ज्ञाननय एवं क्रियानय का संवाद... अब सापेक्ष नयवाद कहते है... यहां सारांश यह है कि- सम्यग्ज्ञान के बिना सम्यक् क्रिया का अभाव होता है, और सम्यक्रिया के अभाव में सम्यग्ज्ञान निष्फल हि है... इत्यादि युक्तिओं को निरपेक्ष ज्ञाननय एवं निरपेक्ष क्रियानय के विधान को सुनकर मुग्धशिष्य प्रश्न करता है कि- हे गुरुजी ! यहां तत्त्व कया है ? तब गुरुजी कहते हैं कि- हे विनीत शिष्य ! आप मुग्ध है, अतः विस्मरणशील
SR No.004437
Book TitleAcharang Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages368
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size8 MB
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