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________________ 330 श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन हैं... जरा याद करो, कि- आप को हम पहले हि कह चूकें हैं कि- ज्ञाननय एवं क्रियानय परस्पर सापेक्ष होते हैं, तब हि सकल कर्मो के मूल का विच्छेद कर के मोक्षपद प्राप्ति का हेतु बनतें हैं... जिस प्रकार चारों तरफ अग्नि की ज्वालाओं से प्रदीप्त नगर में एक अंध मनुष्य एवं एक पंगु (लंगडा) मनुष्य दुःखी हो रहे थे, किंतु जब उन दोनों ने परस्पर एक-दुसरे का सहयोग लिया तब उस नगर से बाहर निकल कर निराबाध अर्थात् सुरक्षित स्थान को प्राप्त कीया... __अन्यत्र भी कहा है कि- ज्ञान एवं क्रिया के समन्वय में हि सफलता देखी जाती है... स्वतंत्र ज्ञान एवं स्वतंत्र क्रिया कहिं पर भी सफलता को प्राप्त नहि करतें, यह बात हर जगह प्रसिद्ध हि है... कहा भी है कि- अकेला ज्ञान निष्फल है, और अकेली क्रिया भी निष्फल है, किंतु जब ज्ञान एवं क्रिया का समन्वय होता है, तब हि विश्व में सफलता प्राप्त होती है... जैसे कि- अंध मनुष्य एवं पंगु मनुष्य परस्पर एक-दुसरे के सहकार से हि नगर की आग में अकाल मरण से बचकर दीर्घकाल तक जीवित रहे... आगमग्रंथों में भी सभी नयों के उपसंहार में यह हि बात कही है कि- परस्पर सापेक्षभाववाले नय हि सफल है... सभी नयों की अनेक प्रकार की वक्तव्यता को सुनकर जो साधु सम्यग्ज्ञान के द्वारा में स्थिर होता है, वह हि साधु सर्वनयविशुद्ध मोक्षमार्ग में उत्तरोत्तर आगे बढता हुआ क्रमशः परमपद-मोक्षपद को प्राप्त करता है... सम्यग्ज्ञान एवं सम्यक्रिया के समन्वय स्वरूप यह आचारांग सूत्र निश्चित हि मोक्षमार्ग को अच्छी तरह से जाननेवाले गीतार्थ साधुओंको भव-समुद्र तैरने के लिये समर्थ अखंड यानपात्र याने जहाज के समान श्रेष्ठ मानागया यह भव-समुद्र कैसा है ? इस प्रश्न के उत्तर में कहते हैं कि- जहां मिथ्या-श्रुत स्वरूप नदीओं का अवतरण है, तथा क्रोधादि कषाय स्वरूप जलचर जीवों का समूह यत्र तत्र सर्वत्र आवागमन करतें हैं, तथा इष्ट वियोग एवं अनिष्ट संयोगादि स्वरूप अनेक कष्टों के आगमन स्वरूप महावत है, तथा मिथ्यात्व स्वरूप पवन से भय, शोक, हास्य, रति एवं अरति इत्यादि तरंग उत्पन्न होते हैं... तथा विश्रसा परिणाम स्वरूप वेला याने भरती-ओट से युक्त है... तथा सेंकडों व्याधि स्वरूप मगरमच्छ जीवों से व्याप्त है... तथा भय को उत्पन्न करनेवाले महागंभीर ध्वनि (आवाज) वाला है, और देखने मात्र से हि त्रास देनेवाला यह भव-समुद्र अत्यधिक भयानक है... अतः आत्यंतिक एवं ऐकांतिक अनाबाध अर्थात् निश्चित हि सभी प्रकार की पीडाओं
SR No.004437
Book TitleAcharang Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages368
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size8 MB
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