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________________ 178 // 1-8-7 - 4 (239) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन ऐसे इस शरीर का निर्वाह करने में ग्लानि याने खेद पाता हुं अर्थात् समर्थ नहि हुं... ऐसा सोचकर तणादि की याचना करके यथाविधि संथारो करे... संथारो करके सिद्ध परमात्मा के समक्ष स्वयं हि पांच महाव्रतों का उच्चारण करके स्वयं में हि आरोपित करें, उसके बाद चारों प्रकार के आहारादि का त्याग (पच्चक्खाण) करें, उसके बाद पादपोपगमन अनशन के लिये प्रथम शरीर का त्याग (प्रत्याख्यान) करे, उसके बाद काययोग का त्याग करे... अर्थात् शरीर का संकोच करना, शरीर को लंबा करना, तथा आंखो के पलकारे उन्मेष एवं निमेष आदि तथा ईर्या याने चलना फिरना इत्यादि तथा शरीर में वाणी के द्वारा एवं मन के द्वारा संभवित सूक्ष्म और अतिसूक्ष्म अप्रशस्त (अशुभ) ईर्या का भी त्याग करे... क्योंकि- यह त्याग सत्य याने आत्महितकर है... इत्यादि सूत्रार्थ पूर्व के उद्देशक में कहे गये सूत्रार्थ की तरह जानीयेगा... इति ब्रवीमि... V सूत्रसार : साधु का जीवन साधना का जीवन है। अतः साधु को जीवन एवं मरण समान है। उसका समस्त समय साधना में बीतता है। मृत्यु भी साधना में ही गुजरती है। इसलिए उसकी मृत्यु भी सफल मृत्यु है। इस लिए आगमकारों ने साधु के मरण को पंडित मरण कहा है। रोगादि से या तपस्या से शरीर क्षीण होने पर साधक घबराता नहीं, परन्तु वह समभाव पूर्वक आने वाले परीषहों को सहता हुआ मृत्यु का स्वागत करता है। उस समय वह आहार आदि का त्याग करके शान्तभाव से पंडित मरण को प्राप्त करता है। ' प्रस्तुत अध्ययन में मरण के तीन प्रकार बताए गए हैं- 1. भक्त प्रत्याख्यान, 2. इंगित मरण और। 3. पादोपगमन। तीनों अनशन जीवन पर्यन्त के लिए होते हैं। इनमें अन्तर इतना ही है कि- भक्त प्रत्याख्यान में केवल आहार एवं कषाय का त्याग होता है, इसके अतिरिक्त अनशन काल में साधक एक स्थान से दसरे स्थान में आ जा सकता है। परन्त. इंगित मरण में भूमि की मर्यादा होती है, वह मर्यादित भूमि में हि आ जा सकता है। तथा पादोपगमन में शारीरिक अंग-उपांगों का संकोच-विस्तार एवं हलन-चलन आदि सभी क्रियाओं का त्याग होता है। इस प्रकार अंतिम समय निकट आने पर साधक तीनों प्रकार की मृत्यु में से किसी एक मृत्यु को स्वीकार करके पंडित मरण को प्राप्त करता है। 'त्तिबेमि' का अर्थ पूर्ववत् समझें। // इति अष्टमाध्ययने सप्तमः उद्देशकः समाप्तः // : प्रशस्ति : ___ मालव (मध्य प्रदेश) प्रांतके सिद्धाचल तीर्थ तुल्य शत्रुजयावतार श्री मोहमखेडा तीर्थमंडन श्री ऋषभदेव जिनेश्वर के सांनिध्यमें एवं श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरिजी, श्रीमद्
SR No.004437
Book TitleAcharang Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages368
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size8 MB
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