________________ 236 // 1-9-1-5 (269) // श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन अह चक्खुभीया संहिया ते हन्ता हन्ता बहवे कंदिसु // 269 // II संस्कृत-छाया : अथ पौरुषी तिर्यग्भित्तिं, चक्षुरासाद्य अन्त:ध्यायति। अथ चक्षुर्भीताः संहिता, यो हत्वा हत्वा बहवः चक्रन्दुः // 269 // III सूत्रार्थ : श्रमण भगवान महावीर, पुरुष प्रमाण आगे के मार्ग को देखते हुए अर्थात् रथकी धुरी प्रमाण भूमि को देख कर ईर्यासमिति में ध्यान देकर चलते हैं। उनको चलते हुए देख कर उनके दर्शन से डरे हुए बहुत से बालक इकट्ठे होकर भगवान पर धूल फेंकते हैं और वे अन्य बालकों को बुलाकर कहते हैं कि- देखो देखो ! यह मुंडित कौन है ? वे इस प्रकार कोलाहल करते हैं। IV टीका-अनुवाद : अब प्रात:काल होने के बाद जब प्रथम पोरसी पूर्ण हुइ उस वख्त शरीर प्रमाण छाया (पडछायो) रही तब परमात्मा ईर्यासमिति से गमन करतें हैं... यहां “ईर्यासमिति से गमन करना" यह हि धर्मध्यान है... ___ अब ग्रामानुग्राम विहार कर रहे परमात्मा को देखकर कितनेक अबुध किशोर लकडे डरकर दौडतें हैं, और बाद में अनेक लडके मीलकर परमात्मा के प्रति धूल-रेत. उडातें हैं, पत्थर फेंकतें हैं और पोकार करते हैं, तो कितनेक लडके आक्रोश के साथ बोलते हैं कियह नग्न एवं मुंडन कीया हुआ कौन है ? कहां से आया है ? इत्यादि कलकलारव करतें हैं... V सूत्रसार : साधना का जीवन निवृत्ति का जीवन है। परन्तु, शरीर युक्त प्राणी सर्वथा निवृत्त नहीं हो सकता। उसे आवश्यक कार्यों के लिए कुछ न कुछ प्रवृत्ति करनी होती है। इसलिए साधना के क्षेत्र में भी निवृत्ति के साथ प्रवृत्ति का उल्लेख किया गया है। अतः निवृत्ति साधना की तरह सहायक समिति प्रवृत्ति भी धर्म है। फिर भी, दोनों में अंतर इतना ही है कि- निवृत्ति उत्सर्ग और प्रवृत्ति अपवाद है। या यों कहिए कि- निवृत्ति के लिए आवश्यक या अनिवार्य कार्य होने पर ही प्रवृत्ति समिति का उपयोग किया जाए। जैसे मौन रखने के लिए बोलने की आवश्यकता होने पर ही साधु भाषासमिति के द्वारा निर्दोष एवं मर्यादित भाषा का प्रयोग करे। . __इस निवृत्ति और प्रवृत्ति के लिए गुप्ति एवं समिति शब्द का प्रयोग किया गया है। समिति प्रवृत्ति का प्रतीक है और गुप्ति निवृत्ति जीवन का संसूचक है। प्रत्येक साधक की साधना