________________ 144 // 1-8-4 - 4 (227) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन दंशमशक-मच्छर आदि जन्तुओं का एवं तृणस्पर्श आदि परीषहों का उत्पन्न होना स्वाभाविक है। परन्तु, इन्हें समभाव पूर्वक सहन करने से तप होता है और तप से कर्मों की निर्जरा होती है। इस तरह साधक कर्म के बोझ से हल्का होता हुआ सदा आत्म अभ्युदय की ओर आगे हि आगे बढ़ता है। वस्त्र के त्याग से जीवन में लाघवता आती है। प्रतिलेखना में लगने वाला समय भी बच जाता है। इससे स्वाध्याय एवं ध्यान के लिए अधिक समय मिलने लगता है, और स्वाध्याय-ध्यान से आध्यात्मिक जीवन का विकास होता है। वस्तुत: आत्म-विकास की दृष्टि से प्रस्तुत सूत्र महत्त्व पूर्ण है। इसी भाव को लेकर स्थानाङ्ग सूत्र में 5 कारणों से अचेलकत्व को प्रशस्त बताया है- 1. इससे प्रतिलेखना कम हो जाती है, 2. वह विश्वस्त होता है, 3. कायक्लेश नामक तप होता है, 4. लाघवता होती है और 5. इन्द्रियों का निग्रह-दमन . होता है। ___ यह उपदेश तीर्थंकर भगवान द्वारा दिया गया है, इस बात को बताते हुए सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहतें हैं... I सूत्र // 4 // // 227 // 1-8-4-4 जमेयं भगवया पवेइयं तमेव अभिसमिच्चा सव्वओ सव्वत्ताए सम्मत्तमेव समभिजाणिज्जा // 227 // II. संस्कृत-छाया : ___ यदेतत् भगवता प्रवेदितं, तदेव अभिसमेत्य सर्वतः सर्वात्मतया. सम्यक्त्वमेव समभिजानीयात् // 227 // III सूत्रार्थ : भगवान महावीर ने आगम में जो अचलेक अवस्थाओं का प्रतिपादन किया है, उसे सभी तरह से, सर्वात्मतया तथा समभावपूर्वक या सम्यक्तया जाने। IV टीका-अनुवाद : . चोवीसवे तीर्थंकर श्री वर्धमान स्वामीजी ने जो कहा है उसको सर्व प्रकार से अच्छी तरह से सम्यक्तया जाने अर्थात् सचेल एवं अचेल अवस्था में तुल्यता है ऐसा जानें... और आसेवन परिज्ञा से वैसा सचेल या अचेल अवस्था का आसेवन करें... किंतु जो साधु अल्प सत्त्व गुण के कारण से प्रभु के उपदेश को अच्छी तरह से जानता नहि है वह साधु कैसे अध्यवसाय (विचार) वाला होता है ? इत्यादि बातें सूत्रकार महर्षि आगे के सूत्र से कहेंगे...