________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी-हिन्दी-टीका 卐 1-8-4-3 (226); 143 * इससे स्पष्ट होता है कि- भगवान महावीर के शासन में सचेलक साधु भी थे या यों कहना चाहिए कि- स्थविरकल्पी साधु सवस्त्र रहते थे और सवस्त्र अवस्था में हि मुक्ति को प्राप्त करते थे। वस्त्रों के त्याग से जीवन में किस गुण की प्राप्ति होती है ? इसका उल्लेख करते हुए सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहते हैं... I सूत्र // 3 // // 226 // 1-8-4-3 लाघवियं आगममाणे तवे से अभिसमण्णागए भवइ // 226 // // संस्कृत-छाया : लाघविकं आगमयन् तपः तस्य अभिसमन्वागतं भवति // 226 // III सूत्रार्थ : वस्त्र के परित्याग से लाघवता होती है और वस्त्राभाव के कारण होने वाले परीषहों को समभावपूर्वक सहन करने से वह साधक तप के सम्मुख होता है अर्थात् वस्त्र का त्याग भी तपस्या है। IV टीका-अनुवाद : वह साधु अपनी आत्मा को कर्मभार से लघु जानता हुआ वस्त्र का त्याग करता है... अथवा शरीर एवं उपकरण में लघुता-अल्पता करता हुआ वस्त्र का त्याग करता है... इस प्रकार वस्त्र का त्याग करने पर उस साधु को कायक्लेश स्वरूप तपश्चर्या का लाभ प्राप्त होता है... अन्यत्र भी कहा है कि- पांच स्थानों में निग्रंथ श्रमण का अचेलकत्व प्रशस्त कहा है... 1. अल्प प्रतिलेखना, 2. विश्वसता रूप, 3. अनुमत तप, 4. प्रशस्त लाघवता और विपुल इंद्रिय-निग्रह... यह बात परमात्माने कही है ऐसा निर्देश सूत्रकार महर्षि आगेके सूत्र के माध्यम से स्पष्ट करेंगे... V सूत्रसार : ___ कर्म के बोझ से हल्का बनना अर्थात् उसका क्षय-नाश करना ही साधना का उद्देश्य है। हल्कापन त्याग से होता है। क्योंकि- मुनि जीवन त्याग का मार्ग है। वह सदा अपने जीवन को कम बोझिल बनाने का प्रयत्न करता है। यही बात प्रस्तुत सूत्र में बताई गई है कि- वस्तु का त्याग कर देने से जीवन में लाघवता-हल्कापन आ जाता है। वस्त्र के अभाव में शीत,