________________ 132 // 1-8-3-3 (222) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन प्रश्न- परीषहोंकी पीडा के समय केवलज्ञानी क्या करतें हैं ? इस प्रश्न का उत्तर सूत्रकार महर्षि आगे के सूत्र से कहेंगे... V सूत्रसार : शरीर की वृद्धि अनुकूल आहार पर आधारित है। योग्य आहार के अभाव में शरीर क्षीण होता रहता है और इन्द्रिएं भी कमजोर हो जाती है। अतः शरीर से दुर्बल व्यक्ति परीषह एवं व्याधि के उत्पन्न होने पर इस शरीर का त्याग भी कर देते हैं। अत: यह शरीर क्षणिक है, नाशवान है, फिर भी धर्म साधना करने का सर्व श्रेष्ठ साधन है। मनुष्य के शरीर में ही साधक अपने मोक्ष के उद्देश्य को सफल बना सकता है। वह सदा के लिए कर्म बन्धन से छुटकारा पा सकता है। इसलिए साधक को सदा इस शरीर से लाभ उठाने का प्रयत्न करना चाहिए। किन्तु कुछ मोहांध लोग परीषहों के उत्पन्न होने पर ग्लानि का अनुभव कहते हैं। वे नाशवान शरीर पर ममत्व लाकर अपने पथ से विचलित हो जाते हैं। परन्तु, वीर पुरूष किसी भी परिस्थिति में पथ-भ्रष्ट नहीं होते। वे परीषहों के उपस्थित होने पर किसी भी प्रकार की चिन्ता नहीं करते हैं। इस विषय में सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहते हैं... I सूत्र // 3 // // 222 // 1-8-3-3 ओए दयं दयइ, जे संनिहाणसत्थस्स खेयण्णे से भिक्खू कालण्णे बलण्णे मायण्णे खणण्णे विणयण्णे समयण्णे परिग्गहं अममायमाणे कालेऽणुट्ठाइ अपडिण्णे दुहओ छइत्ता नियाइ // 222 // // संस्कृत-छाया : ___ ओजः दयां दयते, यः संनिधानशस्त्रस्य खेदज्ञः सः भिक्षुः कालज्ञः बलज्ञः मात्रज्ञः क्षणज्ञः विनयज्ञः समयज्ञः परिग्रहं अममायमानः काले अनुतिष्ठति, अप्रतिज्ञः उभयत: छेत्ता निर्याति // 222 // III सूत्रार्थ : रागद्वेष से रहित भिक्षु क्षुधा आदि परीषहों के उत्पन्न होने पर भी दया का पालन करता है। वह भिक्षु नरक आदि के स्वरूप का वर्णन करने वाले शास्त्रों का परिज्ञाता है, काल का ज्ञाता है, अपने बल का ज्ञाता है, परिमाण आदि का ज्ञाता है, अवसर का ज्ञाता है, विनय का ज्ञाता है तथा स्वमत और परमत का ज्ञाता है, परिग्रह में ममत्व नहीं रखता है और नियत समय पर क्रियानुष्ठान करने वाला है। वह साधक कषायों की प्रतिज्ञा से रहित अर्थात् कषायों