________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1 - 9 - 2 - 15 (302) 283 __किंतु अन्य शाक्यादि मतवाले साधुलोग तो ऐसा सोचते हैं कि- काष्ठादि इंधन को . जलाकर अग्नि के ताप से हि हम इस शीत की पीडा को सहन कर शकेंगे... अथवा वस्त्रादि से अर्थात् कंबलादि से शरीर को ढांकतें हैं... क्योंकि- हिम के स्पर्श से होनेवाली शीत की वेदना वास्तव में दुःसह होती है... सामान्य लोग ऐसी शीत की पीडा को सहन नहि कर शकतें... क्योंकि- शीत की पीडा सब से अधिक दुःखदायक है... I सूत्र // 15 // // 302 // 1-9-2-15 तंसि भगवं अपड़िन्ने अहे विगड़े अहीयासए। दविए निक्खम्म एगया राओ ठाइए भगवं समियाए // 302 // // संस्कृत-छाया : तस्मिन् भगवान अप्रतिज्ञः अधो विकटे अध्यासयति / द्रविकः निष्क्रम्य, एकदा रात्रौ स्थितो भगवान समतया // 302 // III सूत्रार्थ : श्रमण भगवान महावीर शीतकाल में वायु रहित चारों तरफ से बन्द मकान में ठहरने की प्रतिज्ञा से रहित होकर विचरते थे। वे चारों ओर दीवारों से रहित केवल ऊपर से आच्छादित स्थान में ठहरतें थे, एवं सर्दी में बाहर आकर शीत परीषह को समभाव पूर्वक सहन करते थे। IV टीका-अनुवाद : पूर्वोक्त शिशिर ऋतुके काल में यथोक्त धर्मानुष्ठान में रहे हुए जिनमत एवं अन्य मतवाले साधुजनों के बीच श्रमण भगवान् महावीरस्वामीजी विशिष्ट संघयणादि ऐश्वर्यादि गुणवाले होने से शीत की पीडा को सहन करते हैं... ऐसी स्थिति में श्री महावीरस्वामीजी कभी भी निर्वात स्थान की चाहना नहि करतें थे... कर्मो की ग्रंथी का जो द्रवण करे वह द्रव याने संयम... ऐसा संयम जिस के पास है वह द्रविक याने संयमी... ऐसे संयमी श्री महावीरस्वामीजी शीतकाल में शीत की पीडा होने पर वसति में से बाहार निकल कर खुले आकाश में दो घडी (मुहूर्त) तक खडे रहकर पुनः वसति में काउस्सग्ग ध्यान करते हैं... परमात्मा शमभाव में या समता में रहे हुए होने से उस शीतस्पर्श की पीडा को रासभ के दृष्टांत से सहन करतें थे... रासभ याने गद्धा... कुंभार गद्धे के पास जिस कुनेह के काम लेता है, वैसी हि कुनेह-चतुराइ से साधु अपने शरीर से धर्मध्यानादि का काम लेतें हैं...