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________________ 282 // 1-9-2-94 (301) // श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन हैं। शिशिर काल में जब शीतल पवन चलता है उस समय कई एक अनगार हिम के पड़ने पर निर्वात अर्थात् वायु रहित स्थान की गवेषणा करते हैं। IV टीका-अनुवाद : जब कभी शिशिरादि ऋतु में वस्त्रादि के अभाव से शरीर दंतवीणा बजाते हुए ध्रुजतें हैं, अर्थात् साधु शीत के कष्ट को अनुभव करतें हैं... आर्तध्यान परवश होते हैं... ऐसे हिमकण जैसे शीतल वायु के स्पर्श में हो रही शीतपीडा के निवारण के लिये कितनेक शाक्यादि साधु अग्नि जलाते हैं... अथवा जलती हुइ सगडी (चूले) की शोध करतें हैं... अथवा वस्त्रादि की याचना करते हैं... ____ अथवा तेवीसवे तीर्थंकर पार्श्वनाथ प्रभुजी के तीर्थ में प्रव्रजित हुए साधु “हम अणगार हैं" इत्यादि सोचकर गच्छवासी ऐसे वे साधु शीत की पीडा होने पर वातायन याने खिडकी न हो ऐसे घंघशाला (लुहार की कर्मशाला) आदि की गवेषणा करते हैं... . I सूत्र // 14 // // 301 // 1-9-2-14 संघाडीओ पवेसिस्सामो एहा य समादहमाणा। पिहिया व सक्खामो अइदुक्खे हिमगसंफासा // 301 // // संस्कृत-छाया : _____ संघाटी: प्रवेक्ष्यामः एधांश समादहन्तः। पिहिताः वा शक्ष्यामः अतिदुःखं हिम संस्पर्शाः // 301 // III सूत्रार्थ : ___ शीतकाल में जब ठंडी हवा चलती है एवं बर्फ गिरती है, उस समय सर्दी को सहन करना कठिन होता है। उस समय कई शाक्यादि श्रमण साधु यह सोचते हैं कि- सर्दी से बचने के लिए वस्त्र पहनेंगे या बन्द मकान में ठहरेंगे कई अन्य मत के साधु-संन्यासी शीत निवारणार्थ अग्नि जलाने के लिए इंधन खोजते हैं एवं कम्बल धारण करते हैं। IV टीका-अनुवाद : संघाटी शब्द का अर्थ है, शीत की पीडा को निवारण करने में समर्थ ऐसे दो या तीन वस्त्र... अत: शीत से पीडित ऐसे हम इस संघाटी को ग्रहण करें... क्योंकि- स्थविरकल्प में शीत से पीडित साधु संघाटी को धारण करते हैं... इत्यादि...
SR No.004437
Book TitleAcharang Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages368
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size8 MB
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