________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1 - 9 - 2 - 13 (300) 281 इत्यादि... ऐसा कहने पर यदि वे उपद्रव नहिं करतें तब प्रभुजी वहां स्थिर रहते थे... किंतु यदि वे लोग क्रोधायमान होकर कहा कि- तुम यहां से जल्दी से जल्दी बाहार निकल जाओ... तब परमात्मा यह सोचते थे कि- जहां अप्रीति हो वहां नहि ठहरना चाहिये, ऐसा सोचकर परमात्मा वहां से विहार करतें थे... और कभी परमात्मा वहां हि खडे खडे काउस्सग्ग ध्यान में स्थिर रहते हैं, और वे लोग क्रोध करें तब परमात्मा मौनभाव धारण कर के, जो कुछ हो रहा है, उस को अनुप्रेक्षा से देखतें रहते हैं किंतु अपने कायोत्सर्ग ध्यान से विचलित नहि होते थे... V सूत्रसार : प्रस्तुत गाथा में पूर्व माथा की बात को ही दुहराया गया है। कुछ दुर्व्यसनी व्यक्तियों द्वारा पूछने पर कि- तुम कौन हो ? यहां क्यों खडे हो ? तब भगवान मौन रहते। यदि वे अधिक आग्रहपूर्वक पूछते और उन्हें उत्तर देना आवश्यक होता तो भगवान इतना ही कहते कि- 'मैं भिक्षु हूं।' यदि इस पर भी वे सन्तुष्ट नहीं होते और भगवान को वहां से चले जाने के लिए कहते तो भगवान शांत भाव से चले जाते। और यदि वे जाने के लिए नहीं कहते तो भगवान वहीं अपने ध्यान एवं चिन्तन में संलग्न रहते और उनके द्वारा दिए गए परीषहों को समभाव से सहते। साधक जिस स्थान में स्थित है, यदि वह स्थान अप्रीति का कारण बनता है तो साधक को अन्य स्थान में चले जाना चाहिए। और यदि वह स्थान अप्रीति का कारण नहीं बनता हो, तब साधु वहां पर हि अपनी साधना में संलग्न रहते हुए परीषहों को सहन करे... . भगवान की शीतकाल की साधना का उल्लेख करते हुए सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहते हैं... I. सूत्र // 13 // // 300 // 1-9-2-13 जंसिप्पेगे पवेयन्ति सिसिरे मारुए पवायन्ते। तंसिप्पेगे अणगारा हिमवाए निवायमेसन्ति // 300 // // संस्कृत-छाया : ___ यस्मिन्नप्येके प्रवेपन्ते (प्रवेदयन्ति) शिशिरे मारुते प्रवाति / तस्मिन्नप्येके अनगारा: हिमवाते निवातमेषयन्ति // 300 // III सूत्रार्थ : जिस समय शीत पडता है, तब कई एक शाक्यादि श्रमण साधु के शरीर काम्पने लगते