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________________ 130 // 1-8-3 - 2 (221) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन द्युतिमान् याने संयमी-मुमुक्षु... अर्थात् संयम और मोक्ष के स्वरूप एवं आचरण में निपुण वह साधु देवलोक में उपपात याने उत्पन्न होना तथा च्यवन याने देवभव छोडकर अन्य भव में जाना इत्यादि जानकर सोचे कि- इस संसार में सभी स्थान अनित्य हैं, अत: मैं पापाचरण का त्याग करूं... कितनेक मनुष्य मध्यम उम्र में संयमाचरण के लिये तत्पर होने के बाद परीषह एवं इंद्रियों के विषयों में मतिमूढ होकर ग्लानि को पातें हैं यह बात अब सूत्रकार महर्षि आगे के सूत्र से कहेंगे... V सूत्रसार : द्वितीय उद्देशक में अकल्पनीय आहार आदि ग्रहण करने का निषेध किया गया है। प्रस्तुत तृतीय उद्देशक में बताया गया हैं कि- यदि भिक्षा आदि के लिए गृहस्थ के घर में प्रविष्ट साधु शीत के कारण कांप रहा हो और गृहस्थ के मन में यह शंका उत्पन्न हो गई हो कि- साधु कामेच्छा के उत्कट वेग से कांप रहा है, तो उस समय साधु को उस गृहस्थ की शंका का निवारण कैसे करना चाहिए ? इत्यादि बातें सूत्रकार महर्षि यहां क्रमशः कहेंगे... यह हम देख चुके हैं कि- मनुष्य तीनों अवस्थाओं-बाल्य, यौवन एवं वृद्ध अवस्था में साधना को कर सकता है। फिर भी यहां मध्यम अवस्था को लिया गया है। क्योंकिइस मध्यमवय में प्रायः बुद्धि परिपक्व होती है। इसलिए वह अपने हिताहित का भलीभांति विचार कर सकता है। अत: कोई व्यक्ति तीर्थंकर के या आचार्य आदि के वचनों से बोध को प्राप्त करके श्रुत और चारित्र धर्म को स्वीकार करता है। तथा समस्त प्राणियों को अपरी आत्मा के तुल्य समझकर समस्त आरम्भ-समारम्भ का त्याग कर देता है। एवं समस्त पदार्थों पर से- यहां तक कि- अपने शरीर पर से भी ममत्व हटा लेता है। अर्थात् किसी भी पदार्थ में उसको ममता नहीं रहती है। तथा वह इस बात को भली-भांति जानता है कि- ये भोग के साधन अनित्य हि हैं, और तो क्या ? देवों का विपुल ऐश्वर्य भी अस्थायी है। वे देव भी एक दिन अपनी ऐश्वर्य सम्पन्न स्थिति से च्युत हो जाते हैं। जब देवों की यह स्थिति है कि- जिन्हें लोग अमर कहते है, तो फिर मनुष्य की क्या गिनती है ? ऐसा सोचकर वे कभी भी पाप कर्म का आचरण नहीं करते हैं। समस्त सावद्य प्रवृत्तियों का त्याग कर सदा संयम साधना में संलग्न रहते हैं। ऐसे साधु ही निर्ग्रन्थ कहलाते हैं। ____ परन्तु, जो मनुष्य साधना पथ को स्वीकार करने के बाद संयम में ग्लानि पातें हैं, उनके सम्बन्ध में सूत्रकार महर्षि आगे के सूत्र से कहते हैं... I सूत्र // 2 // // 221 // // 1 // 1-8-3-2 आहारोवचया देहा परीसहपभंगुरा पासह एगे सव्विंदिएहिं परिगिलायमाणेहिं // 221 //
SR No.004437
Book TitleAcharang Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages368
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size8 MB
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